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[72] पिण रयणि इक्क वलि सुन्न रण्ण, बुल्लंताँ वाडइ होइ कन्न ॥३०२
दूहउ दियह दिसि जोइ करी, रयणि हिँ पुण नवि भेउ बुल्लइ बहु-जण-संचरइ, धुत्त-धुरंधर केउ ॥ ३०३
पद्धडी तव वलतउँ बुल्लइ खयर-पाग सिउँ अछइ इह पिय-रज्ज-माग । पर पेमिहिँ पूछउँ ताय तुज्झ । विज अंग अवर कुण कहई मुज्झ ॥ ३०४ इम पुच्छिय तिणि तसु कम्म-जोगि विण पुन्निहि किम हुइ जोगि जोगि । ललियंग सुणताँ तासु वयणि इम जंपइ तव भारंड सउणि ॥३०५
सिलोग दिव्व-नाण-प्पहाजोसो, पक्खि-राउत्ति जंपए। . वच्छ आमूलउ एसा, वड-वेढि पुज ठिया ॥३०३ वल्ली जाचंध-दोसा पु(?)-मूल-भल्ली वियाहिया । रस-सेगाउ एयाए, नव-चक्खू नरो भवे ॥ ३०७ नाय-पच्चूस-कालम्मि, कत्थ गंतासि जं पुणो । पुत्त तत्थेव जत्थत्थि, कोऊहलमिणं घणं ॥ ३०८ अन्नमन्नत्ति बिंताणं, ताणं निद्दा समागया । कुमारो-वि वड-हेत्थो, सोच्चा चिंतेइ किं इमं ॥३०९ सच्चं वा किमु वा भंती, कावि एसा ममं जओ । धम्मो जग्गेइ जंतूणं, सव्व-दुक्ख-निकंदणो ॥ ३१० नाणस्स पच्चओ सार-महो वा किं विचिंतणं । इअ निच्छित्तु तं वल्लिं, मुणित्ता हत्थ- फासओ ॥ ३११ छित्तूण छुरिघाएणं, वट्टित्ता पत्थरेण य । चक्खु-कूवे रसंतीए, निहित्ता सुत्तओ खणं ॥ ३१२
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