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गाहा
बालत्तणम्मि जणओ, जुव्वण-समयम्मि रक्खए भत्ता । वुड्ढत्तणम्मि पुत्तो, सुन्ना नारी विणस्सेइ ॥ १३८
चालि कालमुहु वल्लहु पिक्खि, बोलाव्यउ हरणक्खि । कहि नाह करिउ पसाउ, तुम्ह चित्ति कवणु विसाउ || १३९ तुम्ह एअ असंभम लच्छि, अम्ह दहइ बहु तरलच्छि । इकु विकियां पिय रयणु, कालउं म करिसि वयणु ॥ १४० इकु लवसु गयउ ते माहि, अठ लक्ख छइं तिह माहि बीजा जि केवि असंख, ते रयण छइ सय - संख ॥ १४१ मोट्टलिय जोवइ जाम, सवि रयण पेक्खइ ताम । बपु ! दान - फल जगि जोइ, जिणि द्विखद माणिक होइ || १४२ तिह रयण लगि होइ रिद्धि, जग-माहि पयड प्रसिद्धि । जे नासि गया वाणिउत्त, ति मिलइ आपइ वित्त ॥१४३ निहि- कल्स जे अंगार, ते हूया सोवन - सार । जे दास ले गया दासि, ते सवे आव्या पासि ॥ १४४ वलि उल्लसंति विलास, सवि पूरवइ जगि आस ।
मंडिया जि सत्तूकार, धन सुकृत भरइ भंडार ॥ १४५
कारवइ बहु प्रासाद, नवखंड निरवइ नाद ।
उसि (?) भवण सुभर भराई, दिसि विदिसि अफल फलाई || १४५
सायरु अनइ ससिवयणि, भरि भोगवइ दिण - रयणि ।
मरुदेवि-नंदणु धन्नु श्रीआदिनाथु प्रसन्नु || १४७
दानोपरि सागरदत्त - रास - कथा संपूर्ण ॥
शुभं भवतु श्री श्रमणसंघस्य || शुभं भूयात् ॥ लेखक श्रेयंवत् ॥
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