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[88] सुजोड जीण जरद अंगि जीव-रक्ख-सोहिया मिलंति सूर समर-तूर-सद्द-नद्द-खोहिया ।। ४४२ खुहिय खित्ति नीसाण-निनदिहिं ढमढम-ढक्क-ढुल्ल-घण-सद्दिहिं । भरर-भेरि-भंकार ति वज्जइँ जाणि कि पावस घण घण गज्जइँ ॥ ४४३
गगनगति गजंति मेह कि गयणि गडयड गुरुअ-गयवर-मंडलं बहु छत्त-धयवड-सीस-सीकिदि-छन्न-रवि-ससि-मंडलं । तरवारि-तीर-सुतरल-तोमर-चक्क-कुंत-सुसत्थयं खण-खित्ति इम दुइ सिन्न समवडि अन्नमन्न सुपत्थियं ॥ ४४४
यमक-बोलि तिणि प्रस्तावि ते श्रीललितांगकुमार आपणउ
___ सकल दल मेली राजा सामुहउ आविउ, आवतउ जि श्रीजितशत्रु-राजाई बोलाविउ ।। काँइ रे कोरी !, तइं आपणा कुल तणी वात चोरी; माहरी पुत्रिका-तणउं पाणि-ग्रहण कीधउं, तउँ इणि वातई तइं माहरु सिउँ काम सीधउं । पिण हिव जोई माहरी वात, करउं जि ताहरु घात, तउ इम जाणे, ए भलउ महारात' ॥४४५ तिवारइ इस्याँ महराय-तणाँ वचन श्रवण-संपुटि धरी, दक्षिण-हाथि खड्ग सज्ज करी । {छि वल घालि, सामहउ चाली । वलतुं श्रीललितांग-कुमरि राजा बोलाविउ ॥ 'महाराज ! साँभलि राजनीति, उत्तम पुरुष कदापि न पडइ छीति । पिणि जइ सूर सूर-आगलि भाजइ, तउ आपणउ उत्तम वंस लाजइ ॥ ४४६
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