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( xliii ) 'इउँ' < 'इउ' तथा वैदिक प्रत्यय 'वी' और 'स्वीनम्' में से शेष प्रत्यय विकसित हुए होंगे ।)
उदाहरण : 'वि'-चुंबिवि, देखिवि, बुडिवि, लगिवि, झाइवि, लाइवि, करेवि, बालेवि, पिक खेवि, लेवि; फिट्टवि, मेलवि, मेल्लवि, विछोडवि ।
'पि'-गमेप्पि, जिणेप्पि, गंपि, जेप्पि । 'विणु'-छड डेविणु, झाऐविणु, पेक्खेविणु, लेविण ।। 'प्पिणु'-करेप्पिणु, गमेप्पिणु, गृण्हेप्पिणु, चएप्रािणु, मेल्लेप्पिणु, गंपिणु, देप्पिणु,
लेप्पिणु, 'इ'-करि, जोइ, मारि ।
इसके अलावा 'इउ' प्रत्यय भी है, और हेमचन्द्र ने उसका उल्लेख किया है। परंतु इसके उदाहरण के रूप में दिया गया रूप अन्य प्रकार से भी समझाया जा सकता है (देखिये 395/5 विषयक टिप्पण) । परंतु अन्यत्र 'इउ' वाले सम्बन्धक भूतकृदंत के रूप मिलते हैं । 'इ' वाले रूपों में से आधुनिक हिंदी के रूप ('कर के', 'बोल कर') और 'इ' वाले रूपों में से आधुनिक गुजराती के रूप (करी', 'बोलीने') विकसित हुए हैं ।
वैकल्पिक 'गंपि', 'गपिणु' में व्यंजनादि प्रत्यय होने बावजुद संयोजक स्वर नहीं है ।
'चऐप्पिणु', 'पालेवि' और 'लेविणु'-इन्हें हेमचन्द्र ने हेत्वर्थ के रूप माने हैं । (देखिये सू. 441 विषयक वृत्ति तथा दूसरा उदाहरण) । परंतु इन रूपों को सं. भू. कृ. के रूपों से भिन्न मानने को आवश्यकता नहीं है। आधुनिक हिन्दी, गुजराती
आदि की भाँति अपभ्रंश में भी शक के साथ सं. भू. कृ. का रूप प्रयुक्त होता था यह मानना ही युक्तियुक्त है। परंतु अन्यत्र देखा गया है कि 'वि', 'प्पि', 'विणु' और 'प्पिणु' प्रत्यय हेत्वर्थ कृदंत के लिये प्रयुक्त किये गये हैं ।
__इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र ने 'एवं', 'अण', 'अणहँ' और 'अणहि' आदि प्रत्ययों को भी हेत्वर्थ के प्रत्यय माना है । (सू. 441 और वृत्ति)। परंतु ‘एवं' मूलतः विध्यर्थ कृदंत का प्रत्यय है और अन्य क्रियावाचक 'ण' प्रत्यय ('करण' आदि में जो हे वह) तथा उसके कारक रूप हैं, और हेत्वर्थ कृदंत के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं । '' वाले रूपों पर से मारवाडी का 'करणो', हिंदी 'करना', मराठी 'करणे" आदि प्रकार के सामान्य कृदंत विकसित हुए हैं ।
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