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________________ (xxvii) परंतु इन बोलियों का नाटक के अलावा साहित्य में अन्यत्र भी उपयोग होता था । भरत ने जिसे 'विभाषाएँ' और देशभाषाएँ कहीं और अभिनवगुप्त ने जिन विशेषताओं की 'भाषा का अपभ्रंश ही विभाषा' कहकर जो व्याख्या दी, उनमें से जिनका नाटक के अलावा प्रयोग होता था उसे तब 'अपभ्रंश' नाम देने की परंपरा प्राच्य व्याकरणकारों में स्थिर हुई । छटी-पातवीं शताब्दी से अपभ्रंश गद्यमय तथा पद्यमय कथाओं के और प्रबंधों के उल्लेख मिलते हैं और काव्य शरीर के रूप में प्रयुक्त एक भाषा के रुप में अपभ्रंश के विशिष्ट बन्ध और छन्द की बात साहित्यशास्त्री करते हैं । इस प्रकार संस्कृस और प्राकृत की समकक्ष साहित्यभाषा के रूप में व्याकरणकार उसका निरूपण करते हैं और अपभ्रंश में रचना करने को इच्छुक विदग्धों के लिये संस्कृत में से अपभ्रंश कैसे बनाया जाये उसके नियम देते हैं । परंतु महाकाव्य, कथा, आख्यायिका, संघात जैसे विशिष्ट प्रबन्धों के अलावा साहित्य-विनोद हेतु अन्यत्र थी अपभ्रंश का प्रयोग होता था । प्रांत प्रांत के लोगों की भाषा और बेशभूषा को लेकर कौतुकमय रचना करने की रुदि सातवीं शताब्दी से आरंभ हो गयी थी। क्रोडा, गोष्टि आदि में विनोद के लिये की जाती भाषाचित्र रचनाओं में भी भाषाओं के मिश्रण का प्रयोग होता था | भोज के 'सरस्वतीकठाभरण' जैसे ग्रंथों में इसका विस्तार से निरूपण हुआ है । ऐसी रचनाओं में जब प्रादेशिक बोली से युक्त भाषा का प्रयोग होता था तब उसे भी कई बार अपभ्रंश या अपभ्रप्ट कहा जाता था । इस दृष्टि से अपभ्रंश के अनेक भेद माने जाते थे । 'विष्णुधर्मोत्तर' और वाग्भट की 'अपभ्रंश' विषयक व्याख्या इसी संदर्भ में समझनी होगी । इसके साथ-साथ नमिसाधु द्वारा उल्लेखित उपनागर, आभीर, और ग्राम्य ऐसे भेद या नागर, वाचड और उपनागर (तथा पांचाल, मागध, वैदर्भ इत्यादि वैसे अन्य बीस) ये प्राच्य व्याकरणकार द्वारा दिये गये भेद अथवा रुद्रटकथित देशविशेष के अनुसार भूरिभेद उक्त प्रकार को रचनाओं के लक्षित करते होये बहुत संभव है । परंतु इस प्रकार समय-समय पर भिन्न-भिन्न अर्थ में 'अपभ्रंश' संज्ञा प्रचलित होने के कारण अपभ्रंश के स्वरूप के सम्बन्ध में काफी उलझने पैदा होती रही है । एक ओर दंडी, उद्योतनसूरि, रास्रशेखर और प्राच्य व्याकरणकारों द्वारा संस्कृत, प्राइट, अपभ्रंश और पैशाचिक का वर्गीकरण स्वीकृत हुआ है तो दूसरी और संस्कृत, प्राकृत, मागधी, शौरसेनी, पैशाची और आभ्रंश ऐसी भाषा-व्यवस्था भी रुद्रट, भोज, हेमचन्द्र, अमरचन्द्र आदि में मिलती हैं । दंडो अपभ्रंश को आभीर आदि की भाषा के रूप में बताते हैं और फिर विहांक आदि आभीरी भाषा या आभीरोक्ति के रूप में जो उदाहरण देते हैं वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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