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बचे थे । हेमचन्द्र के उदाहरणों की भाषा में कुछ ऐसे आधुनिक रूप मिलते हैंदेखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' ।
मुंहडी सुधारकर भुम्हडी पढे । भुम्हडी में से -ड- प्रत्यय हटा देने पर भुम्ही या भुम्हि रहेगा । यह भुम्मि ऐसे उच्चार पर से - ल्ल <-ल्ह- की भौति सिद्ध हुआ होगा । चंप = हि. चाँपना, गुज. चाँप।
(7). तेवड्ड- : देखिये सूत्र 407. सूत्र 396 से 400 में कुछ ध्वनिविषयक लाक्षणिकताओं का जिक्र है ।
396. दो स्वरों के बीच स्थित क , ग , च, ज., त्, दु, प का लोप और स्व , घ, थ, ध, फ , भ. का हकार-ऐसे परिवर्तन के बदले में क , च., तू, प., ख. , थ, फ का घोषभाव और ग, दु, घ, ध, भ अविकृत रहना ये शौरसेनी के लक्षण माने जाते हैं। हेमचंद्र (या उनके पुरोगामी अपभ्रंश वैयाकरणों) के आधारभूत अपभ्रंश साहित्य में ऐसी प्रक्रियावाला एक अपभ्रंश भी था, यह बात कुछ सूत्रों के नीचे दिये गये उदाहरणों से प्रतीत होती है । देखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' ।
396. (1). विच्छोह- पर से प्राचीन गुज. में वछोहो = 'वियोग', 'विरह' । कर का गर हुआ है।
306. (4). प्राप- अकृत-, और प्रविश- का पाब-, अगिव- और पबिस - के स्थान पर पाव-, अकिय- और पइस.- होता है।
396. (5). कण्णिआर- में से सिद्ध हुआ कणिआर- दोहरे व्यंजन के एकहरा बनने का उदाहरण है । देखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' ।
397. लक्षण व्यापक होने के कारण उदाहरण के रूप में कुछ इधर-उधर के शब्द दिये हैं। -म- का अविकृत रहना और -म्- का --- होना ये अलग अलग बोलियों की विशेषता थी । व्यापक साहित्यभाषा के रूप में अपभ्रंश में भिन्न-भिन्न बोलियों के अति व्यापक लक्षणों का मिश्रण क्रमशः बढ़ता रहा है। हिन्दी विभाग की बोलियों में -म्-> -- - लाक्षणिक है । गुजराती में -म्- सुरक्षित है। भौंराभमरो, ज्यों-त्यों-जेम-तेम आदि अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
398. यह भेद भी मूलतः बोलीगत है । आधुनिक गुजराती में कई शब्द ऐसे हैं जिनमें मूल का संयुक्त रकार सुरक्षित रहा है, जबकि हिन्दी में उसका लोप हुआ है । भत्रीजो-भतीजा, भादरवो-भादों, छतरी-छाता, त्रीश-तीस आदि ।
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