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( ईसा की 11 वीं शताब्दी से पहले) 122 संधि में हरिवंशपुराण की यशःकीर्ति भट्टारक ने 34 संधि में 'प'डुपुराण' (सं. पांडुपुराण ) ( ई. स. 1523 ) तथा उसके समकालीन पंडित रइधु अपरनाम सिंहसेन ने 11 संधि में रामायण - विषयक 'बलहद्दपुराण' तथा 'णेमिणाहचरित' (सं. नेमिनाथचरिय ) की रचना की । लगभग इसी दौर में श्रुतकीर्ति ने 40 संधि में 'हरिवंसपुराण' (सं. हरिवंशपुराण) ई. सन् 1551 में पूर्ण किया । ये रचनायें इस वात का प्रमाण हैं कि स्वयंभू के बाद सात सौ साल के बाद भी रामायण और हरिवंश के विषयों की जैन परंपरा जीवित थी ।
पुष्पदंत
पुष्पदंत (अप. पुप्फयंत ) अपरनाम मम्मइय ( ई. सन् 957-972 में विद्यमान ) की कृतियों से हमें संधिबन्ध में रचित अन्य दो प्रकारों की जानकारी मिलती है । पुष्पदंत के माता-पिता ब्राह्मण थे । आगे चलकर उन्होंने दिगंबर जैनधर्म अपनाया था । पुष्पदंत के तीनों अपभ्रंश काव्यों की रचना मान्यखेट ( = आज के आंध्रप्रदेश में स्थित मालखेड ) में राज्य करते राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय (ई. सन् 939-968) और खोट्टिगदेव (ई. सन् 968-972) के अमात्य क्रमशः भरत और उसके पुत्र नन्न के आश्रय में हुई थी । स्वयंभू और उसके पुरोगमियोंने गम और कृष्णपांडव के कथानक का खुलकर उपयोग किया था । पुष्पदंत की कविप्रतिभाने जैन पुराणकथा के नये एवम् विशालतर प्रदेशों में विहार करना पसन्द किया | जैन पुराणों के मतानुसार प्राचीन युग में तिस्सठ महापुरुषों ( या शलाकापुरुषों) का आविर्भाव हुआ था । इनमें चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव ( = अर्धचक्रवर्ती) नौ बलदेव (उन वासुदेवों के भाई) और नौ प्रतिवासुदेव (अर्थात् उन वासुदेवों के विरोधी ) का समावेश होता है । लक्ष्मण, पद्म (= राम) तथा रावण - ये आठवें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव तथा कृष्ण, बलभद्र और जरासंघ नौवें माने जाते हैं । इन तिरसठ महापुरुषों का जीवनवृत्तांत देनेवाली रचनायें' 'महापुराण' अथवा 'त्रिषष्टि - महापुरुष ( या शलाकापुरुष) चरित' के नाम से प्रसिद्ध है । इनमें जिसमें पहले तीर्थंकर ऋषभ और पहले चक्रवर्ती भरत का चरित वर्णित है वह अंश ' आदिपुराण' और अन्य महापुरुषों के जीवनचरित का अंश 'उत्तरपुराण' कहा जाता है ।
'महापुराण'
पुष्पदंत के पहले भी इस विषय में संस्कृत और प्राकृत में कुछ पद्य - रचनायें हुई थी परंतु लगता है कि अपभ्रंश में इस विषय पर महाकाव्य की रचना तो सबसे
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