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किसी मात्राछन्द में रचित प्रायः आठ प्रासबद्ध चरणयुग्म की बनी होती है । कडवक के. इस मुख्य क्लेवर में वर्ण्य विषय का विस्तार होता है । जबकि कुछ छोटे छन्द में प्रथित चार चरण का बना हुआ अंतिम अंश वर्ण्यविषय का उपसंहार करता है या फिर अतिरिक्त रूप से बाद में आनेवाले विषय का संकेत करता है । 3 इस प्रकार की विशिष्ट संरचना के कारण तथा प्रवाही चरणों को मुक्ति देते मात्राछन्दो के कारण अपभ्रंश संधि, स्वयंपर्याप्त श्लोकों की ईकाई से रचित संस्कृत महाकाव्य के सर्ग की तुलना में विशेषरूप से कथाप्रधान विषय के निर्वाह के लिये अनुकूल था । इसके अलावा अपभ्रंश संधि में श्रोताओं के समय लयबद्ध पठन करने की या गीत के रूप में गान करने की काफी क्षमता थी ।
रचना है । क्योंकि किसी अज्ञात कारणवश था । इसी प्रकार अपने पिता का दूसरा का श्रेय भी त्रिभुवन को है । और उसने एक स्वतंत्र काव्य लिखा था, इसका भी उल्लेख है ।
'पउमचरिय' के नब्बे संधि में से अंतिम आठ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन की स्वयंभू ने यह महाकाव्य अधूरा छोड़ा महाकाव्य 'रिट्टणेमिचरिय' पूरा करने 'पंचमचरिय' (सं. पंचमीचरित) नामक
स्वयंभू ने अपने पुरोगामियों के ऋण का स्पष्ट स्वीकार किया है। महाकाव्य के संधिबंध के लिये वह चतुर्मुख से अनुगृहीत हैं तो वस्तु और उसके काव्यात्मक निरूपण के लिये वह आचार्य रविषेण का आभार मानता है । जहाँ तक 'पउमचरिय' के कथानक की बात है वह रविषेण के संस्कृत 'पद्मचरित' या 'पद्मपुराण' (ई. स. 677-78) के पद - चिनो पर इस हद तक चलता है कि 'पउमचरिय' को 'पद्मचरित' का मुक्त और संक्षिप्त अपभ्रंश अवतार कहा जा सकता है 1 4 फिर भी स्वयंभू की मौलिकता और उच्चस्तरीय कवित्व शक्ति के प्रमाण 'पउमचरिय' में कम नहीं है । एक नियम के रूप में वह रविषेण द्वारा मिले हुए कथानक सूत्र को पकड़े रहता है । वैसे भी यह कथानक अपनी छोटी-बड़ी बातों में परंपरा द्वारा रूढ
3. अपभ्रंश कडवक का स्वरूप आगे चलकर प्राचीन अवधी साहित्य के सूफी प्रेमाख्यान काव्यों तथा तुलसीदास कृत 'रामचतिमानस' जैसी कृतियों में भी मिलता है ।
4. रविषेण का 'पद्मचरित ' स्वयं मी जैन महाराष्ट्री में रचित विमलसूरिकृत 'पउमचरिय' (संभवतः ईसा की चौथी - पाँचवी शताब्दी) के पल्लवित संस्कृत छायानुवाद से शायद ही कुछ विशेष है ।
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