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२. देश्य प्रकारना प्राकृत शब्दोनुं स्वरूप
हेमचंद्राचार्य 'रयणाली' (जेनां बीजां नाम 'दस-सह-संगहा' अन 'देशीनाम: माला' छे.)नी रचना ई. स. १०४५-१०५० नी बच्चे की हती. जे प्राकृत शब्दो परंपरागत परिभाषा प्रमाणे 'देश्य', 'देशी' अथवा 'दशज' तरीके जाणीता हता, तेवा शब्दोना प्राचीन भारतीय कोशोमां आ अंतिम अंने संभवतः सौथी मोटो कोश हता. 'देशीनाममाला' (संक्षिप्त देना.) एक स्वनिर्भर, स्वयत्त काश नी. भाषाना शब्दाने लगता जे परंपरागत सिद्धांत प्रचलित हता जना उपर आधारित व्याकरण अने शब्दकोशानी रचनामां ते एक घटक के अंगभूत हता.
प्राचीन भारतमां भावानुं वर्णन अने विश्लेपण मोटे भागे ता जे साहित्य अन शिष्ट व्यवहार उच्च वर्ण पूरता मर्यादित हतो, तेना माध्यम तरीके रहली भाषानुज थतु रा छे. व्याकरणीय परंपरा तेना प्राचीनतम तबक्काथी भाषानी शुद्धि जळवावा, शिष्ट प्रयोगार्नु धोरण जाळववा सतत जाग्रत रहेती. हेमचंद्राचार्य पूर्व अगियार सार्थी पण तनु वर्षोथी संस्कृतनी साथसाथ प्राकृत भाषाओ पण साहित्यभपाओ तरीके वपराती यई इती. हेम चंद्राचार्य सुधीना तथा तेमनी पछीना व्याकरणकारा माटे साहित्यमा उपराता शब्दभंडाळने प्रमाणित करवानुं सतत कार्य रहेतु, केम के एवा शब्दभंडाळमां परिवर्तन थर्बु स्वाभाविक अने अनिवार्य हतु. साहित्यिक प्राकृता अतिशय रूट बनी गयेलं स्वरूप अने शैली धरावती भाषाओ हती. पुस्तकिया कही शकाय एवी ए भाषाओमां संस्कृतमांथी अविरत आदान थतु रहेतु संस्कृत व्याकरणा रचवा पाछळना एक हेतु लेखको अने पाठको माटे एक सहायक साधननु निर्माण करवाना हता. ए कारणे संस्कृत व्याकरणामां प्राकृतनुं ध्वनिस्वरूप अने व्याकरण संस्कृतमांधी सिद्ध करवाना नियम जोडवानी प्रथा पडी. साहित्यिक प्राकृताना शब्दाने तत्सम, तद्भव अने देश्य एवा त्रण प्रकारमा वहेंचीने तेमनु निरूपण करवामां आवतु.२ जे धातुओं अने अंगा तमना मूळसूत धातुरूपा अने शब्दोथी अभिन्न हता, ते संस्कृतसम के तत्सम. आवा प्र.कृत शब्दानी संस्कृत शब्दोथी अभिन्नतानुं तात्पर्य ए छे के ए धातुओ अने शब्दाना ध्वनिओ अने अर्थोमां करुं देखीतुं के ध्यानपात्र परिवर्तन नथी थयु. जे धातुओं अने अंगे। मूलभूत संस्कृतमांथी ध्वनिपरिवर्तन द्वारा-विकार, लोप के आगमनी प्रक्रियाओ द्वारा-निष्पन्न थयेला हाय ते संस्कृतभव के तद्भव. वाकी रहेला जे शब्दो (पटले के अनि अने २. आ त्रिविध वी करण उपरांत चतुर्विध वर्गी करणी पण एक परंपरा हती.
तत्सम, तद्भव, देश्य अने सामान्य. जुओ मारा हरि वृद्ध उपरनो लेख (निया', न. १४, अं. १, १९७३, पृ. १.६) पण प्रस्तुन चर्चा मारे ते उपयोग नथी .
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