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अथवाऽलं मन्दबुद्धि-परीक्षकपरीक्षणैः । ममापि कृतमेतेन, वैयात्येन जगत्प्रभो! ॥८॥ अथवा, सभी हैं वे परीक्षक मन्दबुद्धिके धनी अत एव नहि उनकी-परीक्षा का जरा-सा अर्थ भी । मैं ने चिकित्सा जो करी वह भी अजुगता खेल था गजराज की भी परख कर सकता कभी भी बैल क्या ? || ८ ।। यदेव सर्वसंसारि- जन्तुरूपविलक्षणम् । परीक्षन्तां कृतधिय-स्तदेव तव लक्षणम् ॥९॥ प्राणी अनन्तानन्त बरते इस सकल संसार में प्रत्येक प्राणी दूसरोंसे है जुदा आकारमें । उन सब स्वरूपों से निराला जगविलक्षण आपका जो है निहाला मान्य लोगों ने वही लक्षण खरा ।। ९ ।। क्रोध-लोभ भयाक्रान्तं, जगदस्माद् विलक्षणः । न गोचरो मृदुधियां, वीतराग ! कथञ्चन ॥१०॥ आवेश, लोभ व भीति से जग है भरा विभु !, सर्वथाइन-वासनाओं से-रहित जितदोष ! तू प्रभु ! है तथा । अल्पमतियोंकी-पहुंचसे दूर है जिन-सूर ! तू नहि वर्ण्य, नहि उपमेय, तदपिअमेय-गुण-भरपूर तू।। १० ।।
इति कठोरोक्तिस्तवः ।।
१. हे हृदय ! पूरे विनयपूर्वक कटुवचन भी तो कहो ! - पाठां. ।।
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