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अष्टादशः प्रकाश : || न परं नाम मृदेव, कठोरमपि किञ्चन । विशेषज्ञाय विज्ञप्यं, स्वामिने स्वान्तशुद्धये ॥१॥ ईश के आगे न केवल वचन कोमल ही कहो १हे हृदय ! पूरे विनय से पर कुछ चिकित्सा भी करो! निर्मूल होगी सब कुशंका चित्त की इस ही तरह बाकी स्वयं सर्वज्ञ है स्वामी हमारा मित्र ! यह ।।१।। न पक्षिपशुसिंहादिवाहनासीनविग्रहः । न नेत्रगात्रवक्त्रादिविकारविकृताकृतिः ॥२॥ विभु ! आप कैसे देव ? जो नहि बैठते पशुओं-उपर पक्षी-उपर नहि, नहि व हिंसक-सिंह-से-प्राणी-उपर । विभु ! आप कैसे देव हो ? जिनके बदन की आकृति नहि विकृत नहि व डरावनी; अतिशय परंतु सुहावनी ।। २ ।। न शूलचापचक्रादिशस्त्राङ्ककरपल्लवः । नाङ्गनाकमनीयाङ्ग-परिष्वङ्गपरायणः ॥३॥ विभु ! आप कैसे देव ? जिनके फक्त दो कर हैं, तथा करमें न तीर, नहि त्रिशूल, न चक्र अरु तलवार ना । विभु ! आप कैसे देव ? जिनकी गोदमें रूपांगनानहि खेलती है एक भी व कदापि; अचरज यह बडा ।। ३ ।। न गर्हणीयचरित- प्रकम्पितमहाजनः । न प्रकोप-प्रसादादि-विडम्बितनरामरः ॥४॥
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