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षोडशः प्रकाश : ॥ त्वन्मताऽमृतपानोत्था- इतः शमरसोर्मयः । पराणयन्ति मां नाथ ! परमानन्दसम्पदम् ॥१॥ जिनमत-सुधा-रस-पान से इक और जब मुझ हृदयमें उपशम-परम-मधु-रसकी आती ऊर्मियाँ विभु ! उदयमें | आनन्द-पारावार उछले मन-भुवनमें जो तभी शाश्वत बनो वह पल विभो ! चाहत यही मेरी अभी ।। १ ।। इतश्चाऽनादिसंस्कार-मूर्च्छितो मूर्छयत्यलम् । रागोरग-विषावेगो, हताशः करवाणि किम् ? ॥२॥ उस और किन्तु मन-गुहामें रहा काल-अनादि से विषधर भयानक राग-नामक विषय-विष-भरपूर जो । अपने जहरकी आग से मुझ चेतना के बाग को ऊजाडता वह सतत; अब मैं क्या करूं हत-आश तो ? || २ || रागाहिगरलाघ्रातोऽकार्ष यत् कर्मवैशसम्। तद् वक्तुमप्यशक्तोऽस्मि, धिग मे प्रच्छन्नपापताम् ।। ३ ।। विकराल विषधर रागनामक चित्तभ्रामक जब डसा उसके जहरकी असरसे मैं दुष्टतामें जा फंसा । तब जो हुए अपकृत्य मुझसे, नाथ ! क्यों कर वह कहूं ? प्रच्छन्न पापी मैं ही मुझको हाय ! अब धिक धिक कहूं ।। ३ ।। क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः क्षणं कुद्धः क्षणं क्षमी । मोहाद्यैः क्रीडयैवाऽहं, कारितः कपिचापलम् ॥ ४॥
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