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चतुर्दशः प्रकाश : || मनोवचःकायचेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा । श्लथत्वेनैव भवता, मनःशल्यं वियोजितम् ॥१॥ मन-तन-वचनकी कष्टमय चेष्टा सभी जिनवर ! प्रथम संकेल ली, कर दी तथा मनकी सभी ताकत खतम । हे योगिवर ! सब योगसे पर ! इस तरह प्रभुवर ! निजी मन-शल्यका क्षय आपने फिर कर दिया हे नाथजी ! || १|| संयतानि न चाऽक्षाणि, नैवोच्छृङ्खलितानि च । इति सम्यक् प्रतिपदा, त्वयेन्द्रियजयः कृतः ॥२॥ प्रभुजी ! कभी बन्धन न लादा इन्द्रियों पर आपने स्वच्छन्द होने भी दिया नहि इन्द्रियों को आपने। क्या खूब इन्द्रिय-विजयका यह तो तरीका आपका ! इस से जुदा भी हो सके क्या मार्ग 'मध्यम' नामका ? || २ || योगस्याष्टाङ्गता नूनं, प्रपञ्चः कथमन्यथा । आबालभावतोऽप्येष, तव सात्म्यमुपेयिवान् ||३|| “है योगके अड अंग, फिर वह सीखने के बाद ही योगी बना जाता", किसीकी बात यह नहि है सही । तादात्म्य तेरा क्यों कि बचपन से सधा है योग से समझाउं यह कैसे विभो ! मैं उन-अधूरे-लोग से ? || ३ ।। विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि, स्वामिन्निदमलौकिकम् ! || ४ ||
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