________________
द्वादशः प्रकाश: ॥ पट्वभ्यासादरैः पूर्वं तथा वैराग्यमाहरः । यथेह जन्मन्याजन्म, तत्सात्मीभावमागमत् ॥१॥ अगले जनममें आपने वैराग्यका आदर तथा अभ्यास कर इतना अनूठा पा लिया पाटव अहा ! | इस जन्म में तो जन्मसे ही जुड गया तादात्म्य से वैराग्य का यह भाव साहिब ! आपके शुद्धात्मसे ।। १ ।। दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य, यथा ते सुखहेतुषु ॥२॥ दुःख-हेतुओं से ना तथाविध आपको विभु ! खेद है जिस तरह सुखके हेतुओं पर आपको निर्वेद है | हे मोक्षसाधननिपुण ! गुणधन ! अजब-यह-वैराग्य का क्या भेद पाए वह कभी जो 'मोक्ष मोक्ष' रटे मुधा ? ।। २ ।। विवेकशाणैर्वैराग्य- शस्त्रं शातं त्वया तथा । यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षात, अकुण्ठितपराक्रमम् ॥३॥ तुझ पास है सुविवेककी अद्भुत सराण जिनेश हे ! वैराग्यकी असिधार पर उपयोग उसका ईश हे ! | करके बना दी धार इतनी तीक्ष्ण उसकी आपने १मोक्षमें अक्षय-अकुंठित-वीर्यवंत कि वह बने ।। ३ ।। यदा मरुन्नरेन्द्र श्री- स्त्वया नाथोपभुज्यते। यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ॥४॥
३८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org