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________________ षष्ठ: प्रकाश : || लावण्यपुण्यवपुषि, त्वयि नेत्रामृताञ्जने । माध्यस्थ्यमपि दौःस्थ्याय, किं पुनर्द्वषविप्लवः ? || १|| भविजन-नयनको अमृत-अंजन-सदृश मनमोहन तथा लावण्यमंडित रूप-अनुपम आपका जो देखता । निर्लेप वह रहता अगर तो भी बने बेहाल ही यदि द्वेष करने लग गया तबकी कहूं क्या बात ही? || १ ।। तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति, सोऽपि कोपादिविप्लुतः । अनया किंवदन्त्यापि, किं जीवन्ति विवेकिनः ? ॥२॥ विभु आपके भी शत्रु है, फिर वे भी क्रोध-क्षुब्ध है यह किंवदन्तीके श्रवणसे सुज्ञ जन सब स्तब्ध है। तू शत्रुको भी मित्र माने, तदपि तव रिपु होत है, यह बात ही सुविवेकियों का नाथ ! जिन्दा मौत है ।। २ ।। विपक्षस्ते विरक्तश्चेत, स त्वमेवाऽथ रागवान् । न विपक्षो विपक्षः किं, खद्योतो द्युतिमालिनः ? ॥३॥ यदि आपका प्रतिपक्ष नीरागी हुवै तब तो स्वयं वह आप ही हो, दूसरा नहि, है मुझे निश्चय अयं । रागान्ध वह होगा अगर, तब आपका न विपक्ष वो; जुगनू बने कैसे कभी प्रतिपक्ष सूरजका कहो! || ३ ।। स्पृहयन्ति त्वद्योगाय, यत्तेऽपि लवसत्तमाः । योगमुद्रादरिद्राणां, परेषां तत्कथैव का ? ॥४॥ १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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