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जो पंच-इंद्रिय के विषय शब्दादि-पांचों वह द्विधा - अनुकूल भी प्रतिकूल भी, सामान्य-जनकी यह विधा । वे सर्व विषयों आपके अनुकूल ही रहते सदा, प्रतिकूल ना बनते सुतार्किकजन यथा तुमको कदा ।। ८ ।। त्वत्पादावृतवः सर्वे, युगपत् पर्युपासते। आकालकृतकन्दर्प - साहायकभयादिव ॥९॥ निर्लज्ज बन हमने हमेशां मदनकी की सेवना यह तो बना जिन मारविजयी, अब हमारा आ बना ! | इस भीतिसे अपनी बदलकर नीति मानों षडऋतु, हे देव ! सेवे तव चरणको, गजब महिमावंत तू ।।९।। सुगन्ध्युदकवर्षेण, दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा, पूजयन्ति भुवं सुराः ॥ १० ॥ यह भूमि तो पावन बनेगी जगतगुरुके स्पर्शसे यह सोचकर सुर-असुरवर जिनवर ! प्रवर-अतिहर्षसे । उस भूमिका पूजन करे सुरभित-विमल-जल-वृष्टिसे स्वर्गीय परिमलसे खचित फूलोंकी मंगल सृष्टिसे ।। १० ।। जगत्प्रतीक्ष्य ! त्वां यान्ति, पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणम् । का गतिमहतां तेषां, त्वयि ये वामवृत्तय : ? ॥ ११॥ हे पूज्य त्रिभुवनके ! तुम्हें पक्षीसमूह प्रदक्षिणा अनुकूल बन करता विभो ! यह बात अद्भुतलक्षणा ! | अब सोचता हूं मैं कि उनका हाल क्या होगा अरे ! निजको बडे गिनते हुए प्रतिकूल तुमसे जो रहे ।। ११ ।।
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