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चतुर्थः प्रकाश : ॥
मिथ्यादृशां युगान्तार्क :, सुदृशाममृताञ्जनम्। तिलकं तीर्थकृल्लक्ष्म्याः , पुरश्चक्रं तवैधते ॥१॥ मिथ्यात्वियोंको प्रलयकालिक सूर्य-सा अतिउग्र जो सम्यक्त्वियोंकी द्रष्टिमें पीयूष आंजे और जो । तीर्थंकरोंकी दिव्य लक्ष्मीका तिलक-तेरा अहो ! दिक्चक्रको करता प्रकाशित धर्मचक्र जयति विभो || १ || ‘एकोऽयमेव जगति स्वामी' त्याख्यातुमुच्छ्रिता । उञ्चैरिन्द्रध्वजव्याजात, तर्जनी जम्भविद्विषा ॥२॥ 'जिनराज ही सिरताज है सम्पूर्ण चौदह राजमें' यह विश्वको कहते हुए मानो स्वयं सुरराजने । की ऊंची इन्द्रध्वज सरज कर तर्जनी निज अगुली लाखों पताकाओं जहां सोहे रतन-मण्डित भली ।। २ ।। यत्र पादौ पदं धत्तस्तव तत्र सुरासुराः ।। किरन्ति पङ्कजव्याजात, श्रियं पङ्कजवासिनीम्।।३।। रखते चरण जगशरण ! हे जिन ! आप जिस धरती उपर सुर और असुरोंके निकर बौछात रचते हैं उधर | अतिभव्य दिव्य व नव्य कमलोंकी, अहो ! इस व्याजसे श्रीदेवताकी भेंट करतेवेत्रिलोकीनाथ से।। ३ ।। दानशीलतपोभावभेदाद्धर्मं चतुर्विधम् । मन्ये युगपदाख्यातुं, चतुर्वक्त्रोऽभवद् भवान् ॥ ४ ॥
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