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________________ नाविर्भवन्ति यद् भूमौ, मूषकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता, अनीतय इवेतयः ॥५॥ उंदर, पतंग व तीडके उस क्षेत्रमें प्रगटे नहीं कोई उपद्रव, विभु ! प्रजापालक जगतमें तू सही । न्यायी सदाचारी नृपतिके १राज्यमें न टिके यथा अन्याय, तेरे राज्यमें न टिके उपद्रव भी तथा ।।५।। स्त्री-क्षेत्र-पद्रादिभवो, यद् वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावर्त - वर्षादिव भुवस्तले ॥६॥ वर्षा बरसती थी अनवरत तुज कृपारसकी जभी पृथ्वी उपर, हे पुण्यमय ! तब तृप्त बनते थे सभी । वैराग्नि जो जगता प्रखर स्त्री-क्षेत्र-सीमा-हेतुसे वह शान्त होता था स्वयं विभु ! आप है जल-केतु-से ।। ६ ।। त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्यत्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ ! मारयो भुवनारयः ॥७॥ अद्भुत प्रभाव प्रभो ! तुम्हारा जब जगतमें फैलता घनघोर डिण्डिमनाद-सम सब विषमताको टालता । तब जानलेवा मारि का आतंक उठता ना कहीं भगवंत ! अतिशयवंत ! जगका नाथ सच्चा तू सही ।। ७ ।। कामवर्षिणि लोकानां, त्वयि विश्वैकवत्सले। अतिवृष्टिरवृष्टिर्वा, भवेद् यन्नोपतापकृत् ॥ ८॥ है भक्तवत्सल बहुत, किन्तु विश्ववत्सल मात्र तू सबके मनोरथ पूरता प्रभु ! दिव्य अक्षयपात्र तू | जब तू विचरता था तभी अतिवृष्टि या निर्वृष्टि भी परिताप देतेजगतको,- क्या बात मुमकिन यह कभी? ||८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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