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________________ तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान् समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसैरात्माऽसिच्यतान्वहम् ॥ १५.७ भुवे तस्यै नमो यस्यां, तवपादनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते ब्रूमहे किमतः परम् ।। १५.८ जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पटः ॥ १५.९ वीतरागदेव के शासन के अमृत रस से अपनी आत्मा को प्रतिदिन सींचनेवालों की उपासना करने में, उन्हें अंजलि धरकर प्रणाम करने में तथा वीतरागदेव के चरण के नखों की किरणें जिसकी चूडामणिरूप बनी हैं वह उनकी विहारभूमि को भी प्रणाम करने में हृदय की आर्द्रता है तथा “इससे अधिक क्या कहें" ? इन शब्दों से भक्तिभाव की पराकाष्ठा सूचित की गई है । वीतरागदेव के गुणसमूह की रमणीयता में लुब्ध होने की धन्यता तो कैसी पर्यायपदों के आवर्तन से मानों उभरती हो इस प्रकार व्यक्त हुई है ! “जन्मवान बना हूँ, कृतकृत्य हुआ हूँ, धन्य हुआ हूँ" स्थूल दृष्टि से पर्याय समान ये तीनों शब्द उष्ट भावकी चढ़ती हुई श्रेणी दिखाते हैं | अगर हम उसे समझ सकें तो ही इसकी तीव्रता का हम सचमुच अनुभव कर सकेंगे। 'जन्मवान्' माने सच्चा अस्तित्व - जीवन जिसने प्राप्त किया है वह, 'कृतकृत्य' माने जिसका अस्तित्व सार्थक हुआ है ऐसा और धन्य माने सद्भाग्य, ऐश्वर्य जिसने प्राप्त किया है वह । सोलहवें प्रकाशमें आत्मनिंदापूर्वक वीतरागस्तुति की गई है । इसमें मनकी दोलायमान स्थिति का वर्णन है - एक ओर से वीतरागदेव के धर्ममत से मनमें ऊठनेवाली शम रस की ऊर्मियाँ और दूसरी ओर से अनादि संस्कारवशता से उत्पन्न रागादि वृत्तिओं की मूर्च्छना । (१६.२-३) यहाँ भी पद की पुनरावृत्ति से मन की चंचलता को बहुत ही अच्छे ढंग से प्रत्यक्ष की गई है : क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी। मोहाद्यैः क्रीडयैवाहं कारितः कपिचापलम् ।। १६.४ १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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