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________________ ४२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ' (पा.सू. १/१/५६) के महाभाष्य में कहा है- 'यां काञ्चिद् विभक्तिमाश्रयितुं बुद्धिरुपजायते सा सा आश्रयितव्या ।' (जिस विभक्ति का आश्रय करना सही प्रतीत हो उसी विभक्ति का आश्रय करना) महाभाष्य की यही बात इस न्याय के द्वारा सिद्ध होती है। ॥१४ ॥ अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ॥ अर्थवान् का ग्रहण संभव हो तो अनर्थक/अर्थरहित को ग्रहण नहीं करना । इस न्याय सूत्र में 'सम्भवति', 'ग्रहणम्' और 'कार्यम्' शब्द अध्याहार समझना । अर्थयुक्त 'प्रत्यय' या 'प्रकृति' का ग्रहण सम्भव हो तब अनर्थक ‘प्रत्यय' या 'प्रकृति' को ग्रहण नहीं करना चाहिए । शब्द-सारुप्य होने से दोनों का ग्रहण संभव था, अतः स्पष्टता करने के लिए यह न्याय है। इस प्रकार अगले न्यायों में भी समझ लेना । इसमें 'प्रत्यय' सम्बन्धी ग्रहण इस प्रकार है-: 'तीयं ङित्कार्ये वा' १/४/१४ सूत्र में 'द्वेस्तीयः' ७/१/१६५ आदि सूत्र से होनेवाला सार्थक ( अर्थवान् ) 'तीय' प्रत्यय का सम्भव होने से, 'जातीयर' सम्बन्धी 'तीय' का ग्रहण नहीं होगा । वहाँ 'जातीयर्' शब्द ही प्रकार अर्थयुक्त होने से सार्थक है किन्तु उसका अंश केवल 'तीय' सार्थक नहीं है, अतः ‘पटुजातीयाय' आदि प्रयोग में 'तीयं ङित्कार्ये वा' १/४/१४ से 'स्मै' आदि आदेश नहीं होंगे। 'प्रकृति' सम्बन्धी ग्रहण इस प्रकार है -: उदा. 'प्लीहानौ, प्लीहान:' आदि प्रयोग में 'हन्' निरर्थक होने से 'इन्हन्पूषार्यम्णः शिस्योः' १/४/८७ सूत्र से कथित नियमानुसार नहीं किन्तु ‘नि दीर्घः' १/४/८५ सूत्र से निर्दिष्ट नियमानुसार दीर्घ होगा। इस न्याय का ज्ञाापक 'तृ स्वसृ- नप्त-नेष्ट-त्वष्ट-क्षत्तृ-होते-पोतृ-प्रशास्त्रो घुट्यार' १/४/ ३८ सूत्र में तृ' प्रत्ययान्त ‘नप्तृ' आदि का भिन्न ग्रहण है । 'नप्तृ' आदि, 'उणादि' के 'तृ' प्रत्ययान्त है और 'उणादि' नाम को 'अव्युत्पन्न' माने जाते हैं ('उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि' ) न्याय से, वे अव्युत्पन्न होने से 'तृ' आदि प्रत्यय भी अनर्थक है, अतः इस/प्रस्तुत न्याय के कारण 'तृ' प्रत्यय से नप्तृ' आदि का ग्रहण नहीं हो सकता है, इस लिए 'नप्तृ' आदि का सूत्र में पृथगुपादन किया है। यदि यह न्याय न होता तो केवल 'तृ' प्रत्यय से ही 'नप्त' आदि का ग्रहण संम्भव होने से 'पृथगुपादान' न किया होता। यह न्याय चञ्चल/अनित्य है क्योंकि 'अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवताऽनर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति' न्याय, इस न्याय का अपवाद है और इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'सव्याडतेश्चाशत्तिष्टेः कः' ६/४/१३० सूत्र है । यहाँ 'डति' प्रत्ययान्त शब्दों को 'डत्यतु सङ्ख्यावत्' १/१/ ३९ सूत्र से 'सङ्ख्यावत्' करने से, 'सङ्ख्या ' शब्द द्वारा ही 'डति' प्रत्ययान्त का ग्रहण हो ही जाता है, किन्तु 'ति' प्रत्ययान्त/अन्तवाले शब्द का वर्जन किया है , अत: 'डति' अन्तवाले शब्द का वर्जन न हो जावे, इसलिए ही सूत्र में 'डति' का उपादान किया है। यदि यह न्याय नित्य होता तो, 'ति' प्रत्ययान्त/अन्तवाले शब्दों का वर्जन करने से 'डति' प्रत्ययान्त का वर्जन संभव नहीं था, तथापि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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