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________________ ३२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) कार्य 'चछटठतथे' इस प्रकार लघु सूत्र करने से हो सकता था, तथापि 'शषसे शषसं वा' १/३/ ६ सूत्र से प्राप्त 'शषसं' पद के साथ अनुक्रम से योजना करने के लिए 'चटते सद्वितीये १/३/७, ऐसा गुरु दीर्घ सूत्र बनाया है । यदि 'चछटठतथे' ऐसा लघु सूत्र बनाया होता तो 'यथासङ्ख्यम्' की योजना सम्भवित न होती । यह न्याय व्यभिचारी अर्थात् अनित्य है । भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने' ५/३/१२८ में वचन का वैषम्य/वचन की विषमता होने पर भी, वहाँ अनुक्रम है । जबकि 'पूर्वावराऽधरेभ्योऽसस्तातौ पुरवधश्चैषाम्' ७/२/११५ में 'पूर्व-अवर-अधर' शब्दों का 'दिक्शब्दादिग्देशकालेषु प्रथमा-पञ्चमीसप्तम्या: ७/२/११३ सूत्र से चली आती 'दिग्देशकाल' शब्द की अनुवृत्ति से प्राप्त 'दिग्-देश-काल' शब्दों के साथ वचन-साम्य और संख्या-साम्य होने पर भी यथासङ्ख्यम्' (अनुक्रम) का अभाव है। पाणिनीय परम्परा में 'यथासङ्ख्यम्' के लिए केवल संख्या-साम्य को ग्रहण किया है, वहाँ 'वचन' का कोई महत्त्व नहीं है । यहाँ सिद्धहेम में 'यथासङ्ख्यम्' के लिए वचन-साम्य का भी महत्त्व है । पाणिनीय परम्परा में यह न्याय 'अष्टाध्यायी' में सूत्र रूप से पठित है।। इस न्याय की आवश्यकता बताने से पूर्व, इसका खंडनात्मक पूर्वपक्ष स्थापन करते हुए पाणिनीय वैयाकरणों ने बताया है कि 'यथासङ्ख्यम्' की यह प्रवृत्ति लौकिक प्रमाण से भी सिद्ध हो सकती है। जैसे 'शत्रु मित्रं विपत्तिं च जय रञ्जय भञ्जय' इत्यादि प्रयोग में 'शत्रु,मित्र' आदि शब्दों को स्थानानुक्रम से 'जय,रञ्जय' आदि पदों के साथ सम्बन्ध स्थापित हो ही जाता है, अतः इस न्याय की आवश्यकता नहीं है । उसका प्रत्युत्तर देते हुए वे कहते हैं कि जहाँ समास आदि होते हैं वहाँ 'स्थानित्व' के इस लौकिक प्रमाण से 'यथासङ्ख्यम्' की सिद्धि नहीं होती है । अतः ऐसे स्थान पर इस न्याय की आवश्यकता है । उदा. '२ङस्योर्यातौ' १/४/६, यहाँ 'डे' और 'सि' तथा 'य' और 'आत्' का समास हुआ है, अतः सामान्यतया 'डे' के स्थान में भी 'य' और 'आत्' आदेश और 'ङसि' के स्थान में भी 'य' और 'आत्' आदेश हो सकता है । यहाँ 'अनुक्रम' की योजना के लिए कोई भी लौकिक रीत समर्थ नहीं हो सकती है, अतः वहाँ इस न्याय के आधार पर, 'आदेश' और 'स्थानी' के संख्या और वचन, दोनों समान होने से 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति होगी । 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्' १/२/२१ में स्थानी-इवर्ण, उवर्ण, ऋवर्ण, लवर्ण का साक्षात् पाठ किया नहीं है, तथापि वहाँ यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति करने के लिए इस न्याय की आवश्यकता है। यह न्याय 'स्थानी' और 'आदेश' में धर्मसाम्य होने पर ही प्रवृत्त होता है, किन्तु व्यक्तिसाम्य होने पर प्रवृत्त नहीं होता है क्योंकि व्यक्ति साम्य लेने पर 'आदेश' की संख्या मर्यादित होती है, जबकि 'उद्देश्य' या 'स्थानी' की संख्या अनंत होती है, अतः 'स्थानी' और 'आदेश' में समान संख्यात्व प्राप्त नहीं होता है। सिद्धहेम व्याकरण में 'यथासङ्ख्यम्' की निवृत्ति के लिए वचन भेद का प्रयोग किया गया है। उदा. 'एदोद्भ्यां ङसिङसो र:' १/४/३५ की बृहद्वृत्ति में स्पष्ट रूप से बताया है कि वचनभेदो यथासङ्ख्यं निवृत्त्यर्थम् ।' इस न्याय के उदाहरण में भी 'तो मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/१४ में समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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