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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५) हैं कि सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में केवल 'अयाञ्चक्रे' रूप दिया है, अत: 'अप्रतिषिद्धं सम्मतं भणति' न्याय से 'ईये, ईयाते, ईयिरे' इत्यादि रूप, सूत्रकार आचार्यश्री को मान्य हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता है और इसके लिए इस न्यायांश के अनित्यत्व की कल्पना भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि एक ही लक्ष्य में नित्यत्व और अनित्यत्व, दोनों की कल्पना करना उपयुक्त नहीं है । जबकि श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यद्यपि 'गुरुनाम्यादे' -३/४/४८ सूत्र के न्यास में 'ईये, ईयाते, ईयिरे' आदि रूप अन्य वैयाकरण सम्मत हैं, ऐसा बताया है तथापि सूत्रकार आचार्यश्री को यह रूप सम्मत ही है, ऐसे स्वरूप में यहाँ उन रूपों का कथन किया गया है। यदि आचार्यश्री को अन्य वैयाकरण का मत मान्य न होता तो, 'ईये, ईयाते, ईयिरे' रूपों को, 'अपप्रयोग' या 'असाधु' प्रयोग कह दिया होता, जैसे 'माघ' काव्य में 'व्यथां द्वयेषामपि मेदिनीभृताम्' पंक्तिगत 'द्वयेषां' पाठ, 'अपपाठ' है ऐसा सूत्रकार आचार्यश्री ने 'अवर्णस्यामः साम्' १/४/१५ सूत्र की वृत्ति में बताया है। तथा श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने साहित्य में प्रयुक्त सब प्रकार के प्रयोगों का अपने 'शब्दानुशासन' में संग्रह किया है, अतः अन्य व्याकरण परम्परा-सम्मत भिन्न-भिन्न प्रयोगों को भी उन्होंने 'इति केचित्', 'इत्यन्ये', 'इत्येके' आदि शब्दों द्वारा अपने 'शब्दानुशासन' में संगृहीत किये हैं और सर्वमान्य या अतिप्रचलित प्रयोगों को सूत्र में भी स्थान दिया है । वस्तुतः अन्य व्याकरण से साधु किन्तु अपने व्याकरण से असाधु हो ऐसे प्रयोग स्वयं सूत्रकार आचार्यश्री को यदि मान्य न होते तो इसे वृत्ति में भी न देते । बल्कि सूत्रकार आचार्यश्री ने सूत्र में भी अन्य व्याकरण से सिद्ध होनेवाले प्रयोगों को स्थान दिया है। उदा. 'पुनरेकेषाम्' ४/१/१० । यहाँ आचार्यश्री के अपने अभिप्रायानुसार अनेक स्वरवाले धातु के आद्य एक स्वरवाले अंश का एक बार द्वित्व होने के बाद पुन: द्वित्व नहीं होता है, किन्तु अन्य वैयाकरण के मतानुसार आद्य एक स्वरवाले अंश का एक बार द्वित्व होने के बाद पुनः द्वित्व होता है और आचार्यश्री ने इसको मान्य भी किया है । संक्षेपमें 'ईये' आदि प्रयोग आचार्यश्री को भी अंशतः सम्मत है ही किन्तु असम्मत नहीं है। तदुपरांत कुछेक के अभिप्रायानुसार 'आदि' और 'अन्त' की व्याख्या ही बदल देने पर, इस न्याय की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी । उनके मतानुसार 'आदि' उसे कहा जाता है जिसके पूर्व में कुछ न हो, और 'अन्त्य' उसे कहा जाता है जिसके बाद में कुछ न हो । इस प्रकार व्याख्या करने से जहाँ केवल एक ही वर्ण या शब्द है वहाँ वह वर्ण या शब्द 'आदि' और 'अन्त' दोनों कहा जाता है। इसी प्रकार एक ही वर्ण या शब्द में 'आदिवद्' और 'अन्तवद्' व्यवहार लोक से और व्यपदेशिवद्भाव से सिद्ध हो सकता है तथापि वही व्यवहार मुख्य नहीं किन्तु गौण होने से, 'गौणमुख्ययोर्मुख्य कार्यसंप्रत्ययः' ॥ न्याय से उसका निषेध होने से, इस न्याय का कथन करना - अनिवार्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrar-ol
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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