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________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ४०९ 'उध्रसण उत्क्षेपे' । 'उध्रासयति', अद्यतनी में 'ङ' होने पर औदिध्रसत्' रूप होता है । 'उद्' उपसर्ग से युक्त 'ध्रासि' धातु के 'उद्धासयति, उददिध्रसत्' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२२३॥ ह अन्तवाले पाँच धातु हैं । 'गृहौङ ग्रहणे' । यह धातु औदिन है, अत: 'वेट' है । अतः 'गा, गर्हिता' प्रयोग होंगे । 'वेट' होने से 'क्त, क्तवतु' और 'क्ति' के आदि में 'इट्' नहीं होगा, अतः 'गृढ, गृढवान्, गृढिः' रूप होंगे । 'नाम्युपान्त्य'-५/१/५४ से 'क' होने पर गृहम्, गृहाः' प्रयोग होता है। ॥२२४॥ स्वो. न्या.-: 'ष्णुसच्' धातु को द्रमिल अतिरिक्त धातु कहते हैं। 'ष्णसूच्' धातु को कुछेक घटदि कहते है तो कुछेक अघयदि कहते हैं । 'दासट्' धातु अन्य व्याकरण में अतिरिक्त/ज्यादा है। 'ध्रसूश् उञ्छे' और 'ध्रसण उत्क्षेपे' धातुओं को कुछेक उकारादि मानतें हैं । 'ग्लहौङ् ग्रहणे' धातु के स्थान पर कुछेक 'गृहौङ्' धातु मानते हैं। 'स्त्रंहूङ् विश्वासे' । यह धातु द्युतादि और दंत्यादि है । परोक्षा में 'सत्रंहे' प्रयोग होता है। 'युद्भ्योऽद्यतन्याम्' ३/३/४४ से विकल्प से आत्मनेपद होने पर 'अस्संहिष्ट' रूप होगा और परस्मैपद होगा तब 'अङ्' होकर 'अस्त्रहत्' होगा । यह धातु ऊदित् होने से 'क्त्वा' प्रत्यय की आदि में विकल्प से 'इट्' होगा । जब 'इट्' होगा तब सेट् क्त्वा, 'क्त्वा' ४/३/२९ से कित् नहीं होगा, अतः 'नो व्यञ्जनस्या'-४/२/४५ से न का लोप नहीं होने से 'स्रहित्वा' प्रयोग होगा । 'इट्' नहीं होगा तब 'ह' का 'ढ' इत्यादि प्रक्रिया होकर, 'ढस्तड्डे' १/३/४२ से पूर्व 'ढ' का लोप होगा और पूर्व 'अ' दीर्घ होने से 'स्रावा' प्रयोग होगा । ॥२२५॥ 'ष्ट्रहौ, ष्टुन्हौत् उद्यमे' । यह धातु षोपदेश होने से 'सन्' परक 'णि' होने से, 'घ: सो-'२/ ३/९८ से कृत 'स' का 'ष' होकर ‘तिष्टहयिषति' रूप होता है । ॥२२६॥ ___'ष्ट्रन्हौत्'-पूर्व की तरह 'ष' होने पर 'तिष्टुंहयिषति' रूप होता है । अषोपदेश 'स्तृह'-और 'स्तूंह्' धातु के अनुक्रम से 'तिस्तर्हयिषति' और 'तिस्र्तृहयिषति इत्यादि प्रयोग ही होते हैं । ॥२२७।। _ 'दहुण रक्षणे' । 'देहयति' । 'णिच्' अनित्य होने से, उसके अभाव में, धातु उदित् होने से कर्मणि का 'क्य' प्रत्यय होने पर 'न' लोप नहीं होगा और 'दह्यते' प्रयोग होगा । ॥२२८॥ क्ष अन्तवाले चार धातु हैं । 'ष्टक्ष गतौ' । सन् परक 'णि' होने पर 'तिष्टक्षयिषति' प्रयोग होता है, क्योंकि धातु षोपदेश है । जबकि अषोपदेश धातु का 'तिस्तृक्षयिषति' प्रयोग होता है । ॥२२९॥ ___ 'जागतिदानयोः' । यह धातु घटादि है और उदित् है, अतः 'न' का आगम होने पर। 'जङ्क्षते' रूप तथा कर्मणि में 'क्य' होने पर 'न' लोप नहीं होगा, अतः 'जक्ष्यते' रूप होगा । परोक्षा में 'जजङ्क्ष', श्वस्तनी में 'जक्षिता, और 'क्त' प्रत्यय होने पर 'जक्षितः' प्रयोग होता है। 'क्तेटो गुरोः'-५/३/१०६ से 'अ' प्रत्यय होने पर 'जङ्क्षा' प्रयोग होगा । 'णि' होने पर 'जङ्क्षयति' और 'जि' या ‘णम् परक णि' होने पर 'घटादेः'-४/२/२४ से विकल्प से दीर्घ होकर 'अजाक्षि , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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