SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ४०५ 'गुगुण् अनृतभाषणे', यह धातु उदित् होने से 'न' का आगम होकर 'गुन्द्रयति' इत्यादि रूप होते हैं । 'अच्' होने पर उत्तममुस्ता' अर्थ में 'गुन्द्रा' शब्द होता है । ॥१९०॥ ल अन्तवाले ग्यारह धातु हैं । इनमें से पहले दो घटादि हैं । १. 'स्खल चलने,' २. 'दल विशरणे' । 'णि' होने पर 'घटादेः'-४/२/२४ से ह्रस्व होने पर स्खलयति, दलयति' इत्यादि रूप होते हैं । 'जि' या 'णम्' परक 'णि' होने पर विकल्प से दीर्घ होता है। अतः 'अस्खालि, अस्खलि, स्खालंस्खालं, स्खलंस्खलं । अदालि अदलि, दालंदालं, दलंदलं' शब्द होते हैं । घटादि न हो ऐसे 'स्खल' और 'दल' धातु के "णि' होने पर 'स्खालयति, दालयति' तथा 'जि' या 'णम्' परक 'णि' होने पर 'अस्खालि, स्खालंस्खालं, अदालि, दालंदालं' रूप होते हैं । 'स्खलति, दलति' इत्यादि दोनों प्रकार के धातु से समान ही होते हैं । ॥१९१-१९२॥ 'स्थल स्थाने', यह धातु षोपदेश नहीं है, अतः सन् परक 'णि' होने पर 'तिस्थालयिषति' तथा प्रेरक अद्यतनी में ङपरक 'णि' होकर अतिस्थलत्' इत्यादि रूप होते हैं । घोपदेश धातु के 'तिष्ठालयिषति, अतिष्ठलत्' इत्यादि रूप होते हैं । 'स्थलति' इत्यादि दोनों प्रकार के धातु से समान ही होते हैं । ॥१९३।। 'बलि परिभाषणहिंसादानेषु', यह धातु औष्ठ्यादि है। बलते'। यह धातु वकारादि (दंत्योष्ठ्यादि) न होने से परीक्षा में एकार का निषेध 'न शस-दद-वादिगुणिनः-४/१/३० से नहीं होगा, अतः 'अनादेशादेरेकव्यञ्जनमध्येऽतः' ४/१/२४ से एत्व होने पर, द्वित्व नहीं होकर 'बेले, बेलाते, बेलिरे' इत्यादि रूप होंगे । ॥१९४॥ "षिलत् उञ्छे' । २ यह धातु षोपदेश है । अतः परोक्षा में 'सिषेल', प्रेरक अद्यतनी में 'असीषिलत्', प्रेरक सन्नन्त में 'सिषेलयिषति' इत्यादि रूप होते हैं । अषोपदेश धातु के 'सिसेल, असीसिलत्, सिसेलयिषति' इत्यादि रूप होते हैं । 'सिलति' इत्यादि दोनों प्रकार के धातु से होते हैं। ॥१९५॥ 'पुलत् महत्त्वे, पुलति' । भ्वादि गण के 'पुल्' धातु का 'पोलति' रूप होता है । ॥१९६॥ 'बल वलण् प्राणने' । प्रथम धातु ओष्ठ्यादि हैं । दूसरा दन्त्योष्ठ्यादि है, दोनों घटादि हैं। अतः 'घटादेः' ४/२/२४ से ह्रस्व होने पर बलयति, वलयति' रूप होते हैं। 'जि' या 'णम् परक णि' होने पर विकल्प से दीर्घ होकर 'अबालि, अबलि, बालंबालं, बलंबलं, अवालि, अवलि, वालंवालं, वलंवलं' रूप होते हैं । ॥१९७-१९८॥ _ 'मुलण रोहणे, मोलयति' । 'णिच्' अनित्य होने से 'नाम्युपान्त्य'-५/१/५४ से 'क' प्रत्यय होने पर 'मुलः' शब्द होता है । ॥१९९॥ 'पालण रक्षणे' । 'पालयति' इति 'पाली', 'णि' अन्तवाले 'पाल्' धातु से उणादि का १. मोथ नामक वनस्पति है। 'स्याद् भद्रमुस्तको गुन्द्रा' [अमरकोश-वनौषधिवर्ग. श्लो. २६०] २. 'उच्छ' अर्थात् 'कणश आदानम्', एक एक कण करके बीनना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy