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________________ चतुर्थ वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १४१ ) ३९९ पकारादि मानते हैं । 'कदुङ् क्रदुङ् क्लदुङ् वैक्लव्ये', ये तीनों धातु नन्दी वैयाकरण की मान्यतानुसार अनुदित् और षित् हैं । 'मदुङ् स्तुतिमोदादौ' धातु के स्थान पर चंद्र, 'मन्दि जाड्ये' धातु कहते हैं । 'णुदींत् प्रेरणे', यह धातु 'ईदित्' होने से फलवत्कर्ता में आत्मनेपद होता है, अतः 'नुदते, नुनुदे' इत्यादि रूप होते हैं। जबकि 'णुदंत्' धातु के 'नुदति, नुनोद' रूप ही होते हैं । यह धातु णोपदेश होने से 'प्रणुदति' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के धातु से होते हैं | | | १४३ ॥ ध अन्तवाले चार धातु हैं । 'वध हिंसायाम्, वधति' । लक्ष्य इस प्रकार है-: "यत्र सालप्रतीकाशः कर्णोऽवध्यत संयुगे । तथा भक्षकश्चेन्नास्ति, वधकोऽपि न विद्यते ॥ १ ॥ [ जहाँ युद्ध में सालवृक्ष जैसा लम्बा कर्ण मारा गया और यदि भक्षक नहीं होता है तो मारनेवाला भी नहीं होता है । ] 'वधकः ' शब्द में 'ञ्णित्' कृत्प्रत्यय, 'णक' होने पर और 'अवधि' प्रयोग में 'ञिच्' होने पर 'न जनवध:' ४/३/५४ से वृद्धि का निषेध होता है, उसे छोड़कर अन्यत्र वृद्धि होती ही है । उदा. 'ववाध १ ॥ १४४ ॥ 'णाधृङ् याञ्चोपतापैश्वर्याशीःषु' । यह धातु णोपदेश होने से [ अदुरुपसर्गान्त- २ / ३ / ७७ सूत्र से] णत्व होगा और 'प्रणाधते' इत्यादि रूप होंगे । अणोपदेश धातु का 'प्रनाधते' इत्यादि रूप होते हैं। ऋदित् होने से ङपरक 'णि' होने पर [ उपान्त्यस्या - ४ / २ / ३५ सूत्र से ] ह्रस्व नहीं होगा, अतः 'अननाधत्' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के धातु से समान ही होते हैं ॥ १४५ ॥ 'साधंच्, षाधेट् संसिद्धौ' । 'साध्यति अन्नम् ' ( वह अन्न पकाता है । ) ॥१४६॥ 'षाधेट्', यह धातु षोपदेश होने से 'सन्' होने पर [ नाम्यन्तस्था- २ / ३ / १५ से ] षत्व होने पर 'सिषात्सति' रूप होगा । यहाँ धातु में अनुस्वार की 'इत्' संज्ञा हुई होने से 'सन्' के आदि में 'इट्' नहीं होता है । सन् परक 'णि' होने पर 'सिषाधयिषति' रूप होता है और ङपरक 'णि' होने पर 'असीषधत्' रूप होता है । अषोपदेश धातु के 'सिसात्सति, सिसाधयिषति, असीसधत्' रूप होते हैं। उसे छोड़कर 'बाधंट्' के 'साध्नोति' इत्यादि रूप होते हैं । अनुस्वार की 'इत्' संज्ञा होने से 'इट्' नहीं होता है, अतः 'साद्धा, साद्धम्' इत्यादि प्रयोग दोनों प्रकार के धातु से होते हैं । ॥ १४७॥ स्वो. न्या. -: 'गुर्दि, गुदि क्रीडायाम्' धातु के स्थान पर कोई-कोई 'खुर्दि, गुधि क्रीडायाम्' कहते हैं । 'ऊबुंदृग् निशामने' धातु के स्थान पर कोई-कोई 'ऊवेद्ग्' कहते हैं तो कोईक 'ऊबुन्धग्' कहते हैं, तो धातुपारायण में 'निशामन' का अर्थ 'आलोचन' किया है अतः यहाँ सीधे ही स्पष्ट रूप से 'आलोचन' अर्थ दे दिया है। दंत् प्रेरणे धातु को कोई-कोई 'ईदित्' मानते हैं। 'वध' धातु को कुछेक अन्य अतिरिक्त / ज्यादा मानते हैं । न्या. सि.: १. 'वदाध' के लिए श्रीलावण्यसूरिजी इस प्रकार उदाहरण देते हैं-: " नूनं न सत्त्वेष्वधिको बबाध, तस्मिन् वने गोप्तरि गाहमाने । किन्तु यह उदाहरण उचित नहीं है क्योंकि मूल धातु 'वध' है और यहाँ प्रयुक्त उदाहरण 'बाध' धातु का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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