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________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३८५ दो धातु उकारान्त हैं । 'खुंङ् गतौ, खवते' । परीक्षा में 'चुखुवे' । अनुस्वार इत् होने से 'खोता, खोतुम्' रूप होते हैं । ॥ ४६॥ स्वो. न्या.-: 'वींश्' और 'श्रीश्' दोनों धातु को आचार्यश्रीहेमचंद्रसूरिजी ने 'क्यादि' में 'अप्वादि' माने हैं। जबकि यहाँ दूसरों की मान्यतानुसार 'प्वादि' कहे हैं । अन्य वैयाकरणों ने 'ल्पीश्' धातु को "प्वादि-ल्वादि बाह्य' और अतिरिक्त कहा है। जबकि आचार्यश्री ने 'ल्वी' धातु को 'प्वादि' बताया है। 'जीण' धातु-युजादि गण के 'जुण वयोहानौ' के स्थान पर नन्दी (देवनन्दी) नामक वैयाकरण ने बताया है । 'उङ् कुङ्' इत्यादि धातु जैसे गत्यर्थक हैं, वैसे 'लँङ्' धातु को भी कुछेक गत्यर्थक कहते हैं । न्या. सि-: श्रीलावण्यसूरिजी ने 'ल्पीश्' के स्थान पर 'प्लीश्' पाठ किया है, किन्तु उदाहरण में 'ल्पीश्' पाठ को अनुसरे हैं । न्यास में और न्या. तरंग में भी 'ल्पीश्' पाठ ही है, अतः उसका यहाँ स्वीकार किया है । 'धुंग्ट् कम्पने, धुनुते' । उदा. "पद्मान्तराणि च दुनोति धुनोति पक्षौ" अनुस्वार इत् होने से, 'धोता, धोतुम्' । उदा. 'आराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्याः' । [कल्याणमन्दिर स्तोत्र श्लोक-३४] 'धूग्ट् कम्पने' धातु के 'धूनोति' इत्यादि रूप होते हैं । 'धूगौदितः' ४/४/३८ से यह धातु 'वेट्' होने से 'धोता, धविता' दो रूप होते हैं । 'क्त' प्रत्यय होने पर 'विधूतः' शब्द होता है । ॥४७॥ तीन धातु दीर्घ अकारान्त हैं। 'गूंगूत् च पुरीषोत्सर्गे' । यहाँ दूसरे धातु के अन्त में 'च' अनुबंध रखा है, तथापि प्रथम धातु भ्वादि गण का लेना और वह अनुस्वारेत् है । जबकि दूसरा धातु तुदादि है। यही बात बताने के लिए 'च' का प्रयोग किया है, अत एव अन्यत्र कहीं भी 'च' कार का प्रयोग नहीं किया है । अतः जहाँ अनेक धातुओं के अन्त में 'क' इत्यादि गणसूचक अनुबंध रखे हों वहाँ उन सब धातुओं को 'अदादि' इत्यादि गण के मान लेना । _ 'गू, गवति' । अनुस्वार 'इत्' होने से 'इट्' न होकर 'न्यगौषीत्' इत्यादि रूप होंगे । 'गूत्वा' में क्त्वा प्रत्यय है । 'गुंङ् शब्दे' धातु के 'गवते' इत्यादि रूप होते हैं । इस धातु का अद्यतनी में 'धुड् हुस्वाल्लुगनिट:'-४/३/७० से 'सिच्' का लोप होने पर 'न्यगुत' रूप होता है और 'क्त्वा' प्रत्यय होने पर 'गुत्वा' शब्द होता है । जबकि 'गोता, गोतुम्, गोतव्यम्' इत्यादि शब्द 'गूं' और 'गुंङ्' दोनों धातु से होते हैं । ॥ ४८॥ 'गूत्', यह धातु कुटादि है, अत: 'कुटादेः'-४/३/१७ से 'सिच्' ङित् होगा, अतः 'सिचि परस्मै समानस्याङिति' ४/३/४४ से 'उ' की वृद्धि नहीं होगी और 'सिच्' के आदि में 'स्ताद्यशितो'४/४/३२ से 'इट्' होगा और 'सः सिजस्तेर्दिस्योः ' ४/३/६५ से 'दि' प्रत्यय के आदि में 'ईत्' होगा, बाद में 'इट ईति' ४/३/७१ से 'सिच्' का लोप होकर, 'धातोरिवर्णो'-२/१/५० से 'ऊ' का 'उ' आदेश होने पर 'न्यगुवीत्' रूप होगा । 'तृच्' इत्यादि प्रत्यय होने पर 'ङित्त्व' के कारण गुण नहीं होगा, अतः 'गुविता, गुवितुम्, गुवितव्यम्' इत्यादि शब्द होंगे । कित् ‘क्त्वा' प्रत्यय होने पर 'उवर्णात्' ४/४/५८ से 'इट्' का निषेध होने पर 'गूत्वा' शब्द होता है । 'गुंत् पुरीषोत्सर्गे' धातु 'कुटादि' है और अनुस्वार की 'इत्' संज्ञा हुई है, अतः 'इट्' नहीं होगा और 'न्यगुषीत्' इत्यादि रूप होते हैं । 'गुता, गुतुम्, गुतव्यम्, गुत्वा' इत्यादि शब्द भी होते हैं । ॥४९।। ૨૯ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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