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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'छदण-संवरणे' । 'छदयति' अकारान्त होने से वृद्धि नहीं होती है ।
'शंका'-: 'छद्' धातु घटादि होने से ही 'णि' पर में आने पर 'घटादे:'-४/२/२४ से हुस्व होकर 'छदयति' रूप सिद्ध हो ही जाता है, तो उसका अकारान्त धातुओ में पाठ करने का क्या प्रयोजन? क्या फल ? समाधान :-आपकी यह शंका उचित है क्योंकि घटादि गण में आये हुए 'छद्' धातु से जब प्रेरक अर्थ की विवक्षा कि जाती है तब 'णि' प्रत्यय होता है। जबकि यही 'छदण्' धातु चुरादि होने से स्वार्थ में भी णि ( णिच् ) प्रत्यय होता है
'शंका' :-यही निर्देश 'बहुलम्' प्रकारक है, अतः उसी प्रकार से/युक्ति से सभी धातु से स्वार्थ में 'णिच्' प्रत्यय करने की अनुज्ञा दी गयी है । समाधान-: 'ऊर्जन' अर्थ में ही 'छद्' धातु घटादित्व प्राप्त करता है। जबकि यहाँ अकारान्त धातुओं में 'छद्' धातु का पाठ करने से 'संवरण' इत्यादि अन्य अर्थ में भी उसका 'छदयति' रूप सिद्ध होता है। अकारान्त न हो ऐसे 'छद्' धातु का ऊर्जन अर्थ हो तो 'छदयति' रूप होता है किन्तु अन्य अर्थवाले 'छद्' धातु का तो 'छादयति' रूप ही सिद्ध हो सकता है और अकारान्त 'छद्' धातु का ङ परक 'णि' प्रत्यय पर में होने पर वह 'समानलोपि' होने से सन्वद्भाव का अभाव होकर 'अचच्छदत्' रूप सिद्ध होता है, जबकि अनकारान्त 'छद्' धातु 'समानलोपि' न होने से, सन्वद्भाव होकर 'अचिच्छदत्' रूप होता है ॥९॥
स्वो. न्या.-: अब जिन धातुओं का आचार्यश्री ने पाठ किया है, उन धातुओं का अन्य वैयाकरणों ने अन्य प्रकार से पाठ किया हो या अन्य वैयाकरणों ने अतिरिक्त धातु जो बताये हैं अर्थात् आचार्यश्री ने स्वयं जिनका पाठ नहीं किया है, उन्हीं धातुओं के बारे में बताया जाता है । उदा. 'खेडण्', आचार्यश्री ने स्वयं 'खेटण् भक्षणे' पाठ किया है, उसके स्थान पर देवनन्दी ने 'खेडण् भक्षणे' पाठ किया है। 'पणण् विक्रये'-इस धातु को कुछेक वैयाकरण अतिरिक्त मानते हैं । 'वित्तण दाने'-'व्ययण् वित्तमुत्सर्गे' अर्थ में 'वित्त' धातु है, ऐसा कुछेक मानते हैं । जबकि 'कविकल्पद्रुम' इत्यादि ग्रंथ में इस धातु का दान अर्थ बताया गया है। अतः यहाँ भी दान अर्थ बताया है। 'कञण् शैथिल्ये' धातु को दूसरे वैयाकरण 'कर्तण' कहते हैं, जबकि चन्द्र 'कर्जण्' पाठ करते हैं और देवनन्दी उसके स्थान पर 'कत्थण्' पाठ करते हैं ।
"लभण् प्रेरणे', अकारान्त होने से वृद्धि नहीं होती है अतः 'लभयति' रूप होगा। 'क्त' प्रत्यय होने पर 'लभितम्' । 'णिवेत्ति-'५/३/१११ से 'अन' प्रत्यय होकर 'विलभना' शब्द होता है ॥१०॥
'श्रपण पाके' अकारान्त होने से वृद्धि के अभाव में 'श्रपयति' रूप होता है । 'समानलोपि' होने से सन्वद्भाव के अभाव में अद्यतनी में 'अशश्रपत्' । 'क्त' प्रत्यय होकर निपातन से 'शृतं, हविः' या क्षीरं अर्थ में होगा ॥११॥
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