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________________ ३७८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) 'अतुच्छयद्' प्रयोग में धातु अकारान्त होने से अनेकस्वरनिमित्तक कार्य भी होते हैं और 'णिच्' अनित्य होने से 'णिच्' के अभाव में भी वह अनेकस्वरयुक्त माना जाता है, अतः 'व्यञ्जनादेरेकस्वराद्'३/४/९ से यङ् नहीं होता है । 'शंका' : यह कैसे ? क्योंकि 'णिच् सन्नियोगे एव चुरादीनामदन्तता' ऐसा न्याय है । 'समाधान'-: आप की बात सच है किन्तु 'न्याया: स्थविरयष्टिप्रायाः ' न्याय से 'णिच् संनियोगे एव' न्याय की प्रवृत्ति यहाँ नहीं होती है और धातु अनेकस्वरयुक्त होने से ' धातोरनेकस्वराद्'-३/४/४६ से परोक्षा में 'आम्' प्रत्यय होने पर 'स्फुटाञ्चकार' इत्यादि रूप भी होते हैं । शीलादि अर्थ में 'निन्दहिंस'५/२/६८ से णक प्रत्यय होकर 'स्फुटक:' इत्यादि शब्द भी होते हैं । अन्य वैयाकरणों के मतानुसार ऐसे धातुओं में 'अ लुक्' का बाध करके उपान्त्य न हो ऐसे अन्त्य 'अ' की, उत्पलमतीय वैयाकरण 'ञ्णिति' सूत्र से वृद्धि करके 'अर्तिरीव्ली' - ४ / २ / २१ से 'पु' का आगम होने पर 'स्फुटापयति, तुच्छापयति, स्कन्धापयति' इत्यादि रूप भी होते हैं । ॥ ५ ॥ 'ऊषण् छेदने, ऊषयति' । 'सन्' प्रत्यय होने पर 'स्वरादेः ' - ४ / १/४ से 'षि' का द्वित्व होगा और 'उषिषयिषति' रूप होगा। अद्यतनी में 'ङ' होने पर ' औषिषत्' होगा । यहाँ भी पूर्व की तरह विषयव्याख्या का आश्रय करने से लुक् हुए 'अ' का स्थानिवद्भाव नहीं होगा । 'मा भवानूषिषत्' यहाँ भी धातु अकारान्त होने से 'समानलोपि' होने से, द्वित्व होने से पहले, उपान्त्य का हूस्व नहीं होता है ॥६॥ 'वसण् निवासे, वसयति' । धातु अकारान्त होने से वृद्धि नहीं होगी और 'अववसत् ' रूप होगा । यहाँ भी दीर्घविधि और सन्वद्भाव नहीं होगा ॥७॥ 'क्रशु, पिशु, कुसु, दसु, त्रसु,' धातु अनुक्त अर्थवाले हैं अर्थात् इन धातुओं का अर्थ नहीं बताया गया है। उदित् होने से 'न' का आगम होगा, अतः 'कुंशति ॥१॥ पिंशति, पिंश्यते ॥२॥ कुंसति ॥३॥ दंसति ॥ ४ ॥ सति ॥ ५ ॥ रूप होंगे । इन धातुओं और ऐसे अन्य धातुओं के अर्थ का निर्णय लक्ष्यानुसार करना चाहिए । तात्पर्य/भावार्थ इस प्रकार है। 'प्रकाश करना' प्रकाशित होना अर्थ में ये पाँच धातु चुरादि गण में हैं क्यों कि लोकृ त ..... दंडक में इन सबका पाठ किया गया है । 'ये धातु अन्य अर्थ में भी हैं।' ऐसा 'धातुपारायण' में बताया है, तथापि अन्य किसी भी अर्थ में कहीं भी प्रयुक्त नहीं पाये गए हैं, अत एव यहाँ इन सब को अनुक्त अर्थवाले बताये हैं । १ श्रीलावण्यसूरिजी 'पांसुर्दिशा मुखमतुच्छयदुत्थितोऽद्रेः' (शिशुपालवध) उदाहरणगत 'अतुच्छयद्' के स्थान पर 'अतुत्थयद्' रूप मानते हैं और उसके समर्थन में मुद्रित किताब के पाठ को बताते हैं। वस्तुतः प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में 'च्छ' और 'त्थ' दोनों समान रूप [7] लिखे जाते थे, अतः उसे 'च्छ' पढ़ना या 'त्थ' पढ़ना, वह प्रकरण अनुसार वाचक/ पढ़नेवाले स्वयं पढ़ लेते थे। अतः मुद्रितपुस्तक में ऐसी भूल होने की पूरी संभावना है। इससे अतिरिक्त इसके समर्थन में वे पाणिनीय परम्परा के चुरादि गण के 'तुत्थ आवरणे' धातुपाट बताते हैं । तथापि अन्त में इसके बारे में वे कहते है कि लक्षणैकचक्षुप्क, हम इसका निर्णय नहीं कर सकते हैं। केवल लक्ष्यैकचक्षुप्क, ऐसे वैयाकरण ही इसका निषेध करने में समर्थ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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