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चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१)
३७३ ___'ऋशत्, गतिस्तुत्योः, ऋशति' । उणादि के 'ऋशिजिनि'-( उणा-३६१) सूत्र से कित् 'य' प्रत्यय होने पर 'ऋश्यः ' शब्द होगा ॥७१॥
ष अन्तवाले दो धातु है । 'भिष भये' । 'भेषति रोगोऽस्मादिति' अर्थ में उणादि के 'भिषेः'(उण-१३१) सूत्र से 'अज' प्रत्यय होने पर विकल्प से 'भिष' और 'भिष्ण' आदेश होकर वैद्य अर्थ में 'भिषजः, भिष्णजः' शब्द होते हैं । 'भिष' और 'भिष्ण' आदेश नहीं होंगे तब औषध अर्थ में 'भेषजः' शब्द होता है । 'ऋधिप्रथि'-( उणा-८७४) सूत्र से कित् 'अज्' प्रत्यय होने पर 'भिषक्' शब्द होता है। 'सम्प्रदानाच्चान्यत्रोणादयः' ५/१/१५ सूत्र से 'अपादान' अर्थ में उणादि का निषेध किया है, तथापि, उपर्युक्त शब्द 'भीमादि' (भीम इत्यादि) शब्द के गणपाठ में होने से भीमादयोऽपादाने' ५/१/१४ सूत्र से 'अपादान' अर्थ में 'अज' और 'अज्' प्रत्ययान्त निपातन होता है ॥७२॥
'युषी सेवने' 'योषति, योषते' । 'उणादि के 'हृस'-(उणा-८८७) सूत्र से 'इत्' प्रत्यय होने पर योषित्' शब्द होता है । 'युष्यसि'-(उणा-८९९) सूत्र से कित् 'मद्' प्रत्यय होकर 'युष्मद्' शब्द होता है ॥७३॥ धिष च'
स अन्तवाले तीन धातु हैं । १. 'लुस हिंसायाम्, लोसति' । उणादि के 'ऋषि वृषि-' ( उणा - ३३१) से कित् 'अभ' प्रत्यय होकर 'लुसभ' शब्द बाल हाथी अर्थ में होता है ॥७८॥
२. 'पसी गतिबन्धननिवासेषु । पसते, पसति ' गति अर्थवाले 'पस्' धातु से कुटिल गति अर्थ में 'यङ्' प्रत्यय होगा तब 'जपजभ'-४/१/५२ सूत्र में दन्त्य सकारान्त 'पस्' धातु भी इष्ट होने से 'मु' का आगम होकर 'पम्पस्यते' और यङ् का लोप होगा तब 'पम्पसीति' और 'पम्पस्ति' रूप होंगे। बन्धन अर्थवाले 'पस्' धातु से बहुलता से स्वार्थ में 'णिच्' होने पर 'पासयति' रूप होता है। उदा. 'पासयति पाशैरश्वम्' । (वह रज्जु से घोड़े को बाँधताँ है।) निवास अर्थवाले ‘पस्' धातु से उणादि के 'मृशी'-( उणा-३६०) सूत्र से तकारादि 'य' (त्य) प्रत्यय होकर 'पस्त्यं' शब्द गृह अर्थ में होता है।
'भसक् भर्त्सनदीप्त्योः ' । यह धातु ह्वादि (जुहोत्यादि) है, अतः 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होने पर 'बभस्ति' । 'क्त' प्रत्यय होने पर भसितम्' । उणादि के 'हुयामा'-(उणा-४५१) सूत्र से 'त्र' प्रत्यय होने पर भस्त्रा' और 'मन्' (उणा-९११) से 'मन्' प्रत्यय होकर 'भस्मन्' शब्द होगा। ॥७६॥
ह अन्तवाले दो धातु हैं । १. 'लुहं हिंसामोहयोः । लोहति' । अनुस्वार की 'इत्' संज्ञा हुई है, अतः 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ से 'इट्' का अभाव होगा । अतः 'लोढा, लोढुम्' शब्द होंगे और 'अच्' प्रत्यय होने पर लोहम्' होगा । उणादि के 'मृदि कन्दि'-( उणा-४६५) से 'अल' प्रत्यय होकर 'लोहलः' शब्द अस्फुटवाक् अस्पष्टवाणी अर्थ में होगा ॥७७॥
न्या. सि.-: 'पशु' शब्द का अर्थ तिर्यंच या मंत्र द्वारा वध्य हो ऐसा मनुष्य अर्थात् मानव-बलि होता है। सि. में "सेयमुभयतः पाशा रजुः" पाठ है । 'ऋश्यति गच्छति वाताभिमुखमिति' या 'ऋश्यते स्तूयते वा व्याधैरिति ऋश्यः' अर्थात् मृग की एक प्रकार की जाति । भिषक् अर्थात् वैद्य ।
१. यहाँ प अन्तवाले दो ही धातु हैं, ऐसा पहले कहा है, अतः तीसरा 'धिप' धातु होने की संभावना नहीं है ।
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