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________________ ३७० है । लक्ष्य इस प्रकार है । “मुसलक्षेपहुङ्कारस्तोमैः कलमखण्डिनि ! कुचविष्कम्भमुत्तभ्नन् निःस्कुभ्नातीव ते स्मरः ॥ १ ॥ " (हे शालिधान छड़नेवाली स्त्री ! मुसल की गिरावट से पेदा होनेवाली हुङ्कार और विश्राम से मानों कि कामदेव तेरे स्तनप्रदेश को उन्नत करता हुआ निरंतर विस्तृत् कर रहा है ।) स्तोम अर्थात् विश्राम, विष्कम्भ अर्थात् पृथुत्व, उत्तभ्नन् अर्थात् उन्नत करता हुआ, निष्कुभ्नाति अर्थात् निरंतर विस्तृत कर रहा है । स्वो. न्या. -: 'स्कुभ्नाति, स्तभ्नाति जले गजादीनपि इति कुम्भीर:' । पानी में हाथी आदि को भी स्तंभित कर दे वह कुम्भीर अर्थात् मगरमच्छ । 'कं वायुं स्कुभ्नाति विस्तारयति इति ककुप्' वायु को विस्तृत करे वह दिशा । न्या. सि. :- 'स्कभ्न:' २ / ३ / ५५ सूत्र में 'स्कभ्नः' रूपसे 'श्ना' प्रत्ययान्त का अनुकरण होने से 'त्रि' से पर आये हुए 'नु' प्रत्ययान्त 'स्कम्भ्' धातु के 'स' का 'ष' नहीं होता है। 'कु' से युक्त 'स्कुम्भू' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय होने पर 'कुकुप्' शब्द उष्णिक्छन्द अर्थ में होता है । 'दभ वञ्चने', छलना, ठगना । 'दभति' । ' आसुयुवपि रपि लपि त्रपि डिपि दभि चम्यानमः ' ५/१/२० सूत्र से 'घ्यण्' प्रत्यय होने पर 'दाभ्यो वञ्चनीयः' । 'बहुलम्' से स्वार्थ में 'णिच्' प्रत्यय होने पर 'दाभयति' रूप होता है । ५४ ॥ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) अन्तवाले दो धातु हैं । १ 'डिम, हिंसायाम् डेमति' । 'नाम्युपान्त्य' - ५ /१/५४ से 'क' प्रत्यय होने पर 'डिम:' शब्द प्रबन्धविशेष अर्थ में होता है । उणादि के 'डिमे:' - ( उणा - ३५६ ) सूत्र से कित् 'डिम' प्रत्यय होकर 'डिण्डिमः ' शब्द होता है | ॥ ५५ ॥ 'धम शब्दे' परोक्षा में 'दधाम' इत्यादि रूप होते हैं । 'धमति' इत्यादि रूप ' ध्मा' धातु के भी होते हैं । उणादि के 'य्वसिरसि' - ( उणा - २६९ ) से 'अन' प्रत्यय होने पर 'धमनः' शब्द घास की एक विशेषजाति के अर्थ में होता है। 'भिल्लाच्छभल्ल- ' ( उणा - ४६४ ) से निपातन होने पर 'धम्मिलः ' और 'सदिवृत्यमि'- ( उणा - ६८०) सूत्र से 'अनि' प्रत्यय होने पर ' धमनिः ' शब्द 'शिरा' अर्थ में होता है ॥ ५६ ॥ य अन्तवाला 'पीय पाने' पीना । 'पीयति' । उणादि के 'खलिफलि-' ( उणा - ५६० ) से 'ऊष' प्रत्यय होकर 'पीयूषम् ' । 'लाक्षाद्राक्षा' - ( उणा - ५९७ ) सूत्रगत 'आदि' शब्द से 'अक्ष' प्रत्यय होकर निपातन से 'पीयूक्षा' शब्द द्राक्ष की एक जाति के अर्थ में होता है ॥५७॥ 'उर गतौ, ओरति' । उणादि के 'उरे: ' ( उणा-५३१ ) से कित् 'अश' प्रत्यय होने पर 'उरश: ' १. २. उणादि सूत्रवृत्ति में 'ककुप्' दिशा अर्थ में बताया है और 'कुकुप्' शब्द उष्णिक्- छन्द अर्थ में निपातन है किन्तु सूत्र में केवल 'ककुप्' शब्द है 'कुकुप्' नहीं है । नाटक के दश भेद (दशरूपक - धनञ्जयकृत) इस प्रकार हैं । १. नाटकमथ २ प्रकरण ३ भाण- ४ व्यायोग५ समवकार- ६-७-८ डिमेहामृगाङ्क- ९ वीथि १० प्रहसनमिव रूपकानि दश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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