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________________ तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२८) ३३५ होता ही है। पाणिनीय व्याकरण में यह न्याय वार्तिक के स्वरूप में उपलब्ध है और वह 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ (पा.सू.१/१/५६) के महाभाष्य में है। सिद्धहेम के 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' ४/३/९७ सूत्रगत 'अयपि' के अर्थवाची 'न ल्यपि' (पा.सू. ६/४/६९) सूत्र द्वारा पाणिनीय परम्परा में इस न्याय की अनित्यता बतायी है उसी प्रकार यहाँ भी अनित्यता बताई जा सकती है। वह इस प्रकार-: "क्त्वा' प्रत्ययगत 'कित्त्व' स्वरूप विशेष धर्म का अतिदेश करने पर ही 'ईत्व' की प्राप्ति हो सकती है और 'कित्त्व' विशेष धर्म है । उसका इस न्याय से अतिदेश नहीं हो सकता है और वही अतिदेश न होने पर अयपि' से किया गया निषेध व्यर्थ होता है । वह व्यर्थ होकर इस न्याय की अनित्यता को सूचित करता है। श्रीलावण्यसूरिजी ने बताया है उसी प्रकार नवीन वैयाकरण 'क्त्वा' प्रत्यय के 'कित्त्व' को विशेष धर्म के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं । अतः उनके मतानुसार 'अयपि' निषेध द्वारा इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करना संभव नहीं है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'क्त्वा' प्रत्यय के 'कित्त्व' को सामान्य धर्म मानना या विशेष धर्म ? 'क्त्वा प्रत्यय के प्रत्ययत्व या कृत्प्रत्ययत्व को सामान्य धर्म माना जाय तो 'कित्त्व' विशेष धर्म हो जाता है क्योंकि सामान्य धर्म और विशेष धर्म परस्पर सापेक्ष हैं । और तो ऊपर बतायी पद्धति से इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करना संभव है। यह न्याय सिद्धहेम के पूर्ववर्ती और सबसे प्राचीन व्याडि के परिभाषासूचन, व्याडिपरिभाषापाठ व शाकटायन में ही है । जबकि सिद्धहेम के पश्चात्कालीन सभी परिभाषासंग्रहों में यह न्याय विद्यमान है। ॥१२८॥ सर्वत्रापि विशेषेण सामान्यं बाधते न तु सामान्येन विशेषः ॥६॥ सर्वत्र विशेष शास्त्र द्वारा सामान्य शास्त्र का बाध होता है किन्तु सामान्य शास्त्र द्वारा विशेष शास्त्र का बाध नहीं होता है। . विशेषशास्त्र सामान्यशास्त्र का व्याप्य है और सामान्यशास्त्र. विशेषशास्त्र का व्यापक है अर्थात् सामान्य और विशेष के बीच व्यापक-व्याप्य सम्बन्ध है । तार्किक सामान्य और विशेष में परस्पर बाध्य-बाधक भाव नहीं मानते हैं । किन्तु व्याकरण में है, उसका सूचन इस न्याय से होता है। अत: व्याकरणशास्त्र में सर्वत्र विशेषशास्त्र, सामान्यशास्त्र का बाध करता है, किन्तु सामान्यशास्त्र विशेषशास्त्र का कदापि बाध नहीं करता है । लोक में भी विशेष का अभिधान किया हो तो, जहाँ विशेष हो वहाँ सामान्य होने पर भी उसका ग्रहण नहीं होता है क्योंकि वहाँ विशेष की मुख्यता होती है। यहाँ 'सर्वत्र' का अर्थ 'वर्तमान में प्राप्त अवस्था में और भविष्य में प्राप्त होने वाली अवस्था में भी' लिया गया है। यहाँ प्राप्त अवस्था का उदाहरण इस प्रकार है :- 'कस् अर्थः।' स्थिति में सि (स) का 'सो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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