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________________ तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२६ ) ३३३ है और इस प्रकार का अर्थ करके ऐसी शंका उत्पन्न करना उचित भी नहीं है क्योंकि शास्त्रकार के विधान से 'कृतति' प्रयोगगत 'ऋकारश्रवण' का निषेध नहीं होता है । 'कृतण्' पाठ करने से 'ऋवर्णस्य' ४/२/ ३७ सूत्र से उपान्त्य ऋकार और ऋकार का 'ङपरक णि' प्रत्यय पर में आने पर ह्रस्व 'ऋ' होता है और दीर्घ 'ॠ' कृतण् के सिवा कहीं भी उपलब्ध नहीं है । यही सूत्र 'कीर्त्तृ' आदेश का बाध करता । अतः जब इसी सूत्र से 'कृत्' आदेश विकल्प से होगा तब 'कीर्त्' आदेश नहीं होगा किन्तु 'कृत्' आदेश नहीं होगा तब 'कीर्त्तृ' आदेश होगा ही, और 'अचिकीर्तत् ' तथा 'अचीकृतद्' ऐसे दोनों रूप सिद्ध होंगे । यहाँ श्रीलावण्यसूरिजी पुनः पूर्वपक्ष स्थापन करते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा हो तो 'कृतण्' के स्थान पर 'कृत' पाठ करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से 'कृतण्' पाठ के सामर्थ्य से ही 'अचीकृतत्' रूप सिद्ध हो सकता है और ऐसा करने पर 'ऋवर्णस्य' ४/२/३७ सूत्र में 'वर्ण' पद का ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं रहती है तथा 'कृतः कीर्त्तिः ' ४/४/१२२ के स्थान पर 'कृतः कीर्ति: ' सूत्र करने पर मात्रालाघव भी होता है । यह बात सत्य है किन्तु उपर बताया उसी तरह 'कृतण्' पाठ करने से 'कृतैत्' धातु का भी 'कीर्त्तृ' आदेश होने की शंका उत्पन्न होती है तथा 'अनित्यो णिच चुरादीनाम्' न्याय से 'णिच्' के अभाव में 'कीर्त्तृ', आदेश नहीं होने पर 'कर्तति' स्वरूप अनिष्ट रूप होगा, जबकि 'कृतति' रूप ही इष्ट है । अतः 'कृतण्' पाठ ही उचित है और कृतति रूप की सिद्धि के लिए इस न्याय का आश्रय करना भी उचित है । यह न्याय अन्य परिभाषासंग्रह में नहीं है। ॥ १२६ ॥ नामग्रहणे प्रायेणोपसर्गस्य न ग्रहणम् ॥४॥ 'नाम' के ग्रहण से प्रायः 'उपसर्ग' का ग्रहण नहीं होता है । 'उपसर्ग' भी एक प्रकार का 'नाम' ही कहा जाता है अतः उसकी प्राप्ति थी उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है । उदा. 'उपस्पृशति' प्रयोग में 'उप' उपसर्ग स्वरूप नाम के पर में 'स्पृश्' धातु होने पर भी 'स्पृशोऽनुदकात्' ५/१/१४९ सूत्र से 'क्विप्' नहीं होता है, अतः 'उपस्पृक्' प्रयोग साधु / उचित नहीं माना जाता है । यहाँ न्याय में 'प्रायेण' शब्द रखा है, वह ऐसा सूचित करता है कि क्वचित् 'नाम्' के ग्रहण से उपसर्ग का भी ग्रहण होता है । उदा. 'अर्द्ध भजति अर्द्धभाक् प्रयोग में जैसे 'अर्द्ध' सेर में आये हुए 'भज्' धातु से 'भजो विण्' ५ / १ / १४६ 'विण्' प्रत्यय हुआ है वैसे 'प्रभाक्' प्रयोग में भी 'प्र' उपसर्ग को 'नाम' मानकर 'भजो विण् '५/१/१४६ से 'विण्' प्रत्यय होगा और 'प्रभाक्' रूप सिद्ध होगा । श्री लावण्यसूरिजी ने बताया है उसी प्रकार, यह न्याय कहीं भी न्याय के स्वरूप में उपलब्ध नहीं है । केवल संभावनामूलक ही यह न्याय है और इस न्याय की कोई आवश्यकता भी दिखायी नहीं पड़ती है । जिस उदाहरण के लिए श्रीहेमहंसगणि ने यह न्याय बताया है, उसकी सिद्धि अन्य प्रकार से भी हो सकती है और वह इस प्रकार है। 'स्पृशोऽनुदकात्' ५ /१/१४९ सूत्र में 'अनुदकात्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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