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तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२४)
३३१ भी 'आदित्' धातुओं से 'भाव' और 'आरम्भ' अर्थ में हुए ‘क्त, क्तवतु' प्रत्ययों से वेट्त्व के कारण
और अन्य कर्ता, कर्म इत्यादि अर्थ में हुए ‘क्त, क्तवतु' को 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ से 'इट्' निषेध होगा किन्तु एक योग करने से 'आदित्' धातु से पर में 'भाव' और 'आरम्भ' अर्थ में ही धातु 'वेट्' है । अतः इस न्याय से 'भाव' और 'आरम्भ' अर्थ में ही हुए ‘क्त, क्तवतु' प्रत्यय के आदि में 'इट' निषेध होगा किन्तु कर्ता, कर्म इत्यादि अर्थ में हुए 'क्त, क्तवतु' के आदि में 'इट्' निषेध नहीं होगा
और साक्षात् विरोध उत्पन्न होगा। वह इस प्रकार-: 'आदितो नवा भावारम्भे' सूत्र करने से 'आदित्' धातुओं से ही पर 'भाव' और 'आरम्भ' अर्थ में हुए 'क्त, क्तवतु' की आदि में 'इट्-विक्ल्प' होगा। जबकि 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ से 'भाव' और 'आरम्भ' अर्थ में ही हुए' क्त, क्तवतु' के आदि में 'इट्' निषेध होता है और पृथग्योग करने से कर्ता, कर्म इत्यादि अर्थ में हुए ‘क्त, क्तवतु' की आदि में 'इट्' का निषेध 'आदितः' ४/४/७१ से सिद्ध होगा । जबकि 'भाव' और 'आरम्भ' अर्थ में हुए 'क्त, क्तवतु' के आदि में 'इट्' का विकल्प 'नवा भावारम्भे' ४/४/७२ से होता है । इस प्रकार 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ सूत्र को आदित् धातु के विषय में अनवकाश बनाने से उसकी प्रवृत्ति नहीं होगी और विरोध दूर हो जायेगा।
इस प्रकार इस न्याय से उत्पन्न विरोध को दूर करने के लिए पृथग्योग किया, वह इस न्याय का ज्ञापक है।
यह न्याय वस्तुतः न्याय नहीं है किन्तु केवल विशेषवचन ही है। सामान्यतया न्यायशास्त्र में सर्वत्र लागु होता है अर्थात् उसकी प्रवृत्ति व्यापक होती है। जबकि इस वचन की प्रवृत्ति केवल 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ सूत्र के लिए ही है और यही बात पाणिनीय परम्परा में 'यस्य विभाषा' (पा.सू.७/ २/१५) सूत्र के महाभाष्य में भी प्राप्त है।
यह न्याय अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में संगृहीत नहीं है। ... ॥१२४॥ यस्य येनाभिसन्बन्धो दूरस्थस्यापि तेन सः ॥२॥
जिसका, जिसके साथ सम्बन्ध हो, वह उससे दूर होने पर भी, वह सम्बन्ध मान्य ही है।
उदा. 'अश्वेन चैत्रः सञ्चरते ।' इत्यादि प्रयोग में 'अश्वेन' और 'सञ्चरते' के बीच 'चैत्रः' का व्यवधान होने पर भी, तृतीयान्त 'अश्वेन' पद के साथ ही 'सञ्चरते' का योग माना जाता है, अतः वहाँ 'समस्तृतीयया' ३/३/३२ से आत्मनेपद होता है । सामान्यतया 'योग' शब्द का अर्थ, दो के बीच/आनन्तर्य ही प्रसिद्ध है । अतः यह न्याय बताया है।
__ यह न्याय केवल इतना ही सूचित करता है कि दो शब्दों के बीच किसी भी शब्द का व्यवधान होने पर वह, उसी शब्द के अर्थ द्वारा प्रयुक्त आनन्तर्य सम्बन्ध का नाश नहीं कर सकता है।
यह न्याय लोकसिद्ध ही है क्योंकि लोक में दो व्यक्ति का पिता-पुत्र, माता-पुत्री इत्यादि स्वरूप सम्बन्ध, वे लोग हजारों मील दूर होने पर भी निवृत्त नहीं होता है । इस प्रकार यहाँ भी दो शब्दों के बीच जो सम्बन्ध है वह किसी शब्द के व्यवधान के कारण दूर नहीं हो सकता है।
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