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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२०) ३२३ 'स्वञ्जश्च' २/३/४५ सूत्र की वृत्ति गत 'च' कार सम्बन्धित टिप्पणी स्वरूप "चकार: परोक्षायां त्वादेः इत्यस्यानुकर्षणार्थस्ततश्च तस्य पुरोऽननुवृत्तिः सिद्धा ।" शब्द ही इस न्याय का ज्ञापक है। यह न्याय अनित्य होने से 'मारणतोषणनिशाने ज्ञश्च' ४/२/३० सूत्र के 'च' से 'णिचि च' का अनुकर्षण होता है, ऐसा कहने पर भी 'णिचि च' की अगले सूत्र में अनुवृत्ति होती है। इस न्याय की जरूरत के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि क्वचित् अधिकार की अपेक्षा की विवक्षा न की हो तो, इसके लिए चकार का उपयोग होता है। वही 'चकार' दो प्रकार के हैं। (१) विधेयघटितसूत्राव्यवहितसूत्रस्थः' और (२) तदितरसूत्रस्थः । इसमें द्वितीय प्रकार के 'चकार' के लिए यह न्याय है। यद्यपि लघुन्यासकार की व्याख्यानुसार 'चहण: शाठ्ये' ४/२/३१ सूत्र का अर्थ करने पर 'मारणतोषण'-४/२/३० सूत्र इस न्याय की अनित्यता का उदाहरण नहीं बनता है । वे 'चहण: शाठ्ये' ४/२/३१ सूत्र की टीका में बताते हैं कि-'धात्वाकर्षणे पूर्वेण सिद्धे फलाभावात् प्रकृतेरपि ( परतः ) स्थितः प्रत्ययमाकर्षति । स्वरूपाख्यानमिदं यावताधिकारायातमेव चकारेणानुमीयते । अन्यथा 'चानुकृष्टं नोत्तरत्रे' ति स्यात् ।" तथापि श्रीहेमहंसगणि के कथनानुसार अनित्यता का उदाहरण मानने में भी कोई बाध नहीं है क्योंकि ('णिचि च' के) अनुकर्षण के लिए ही यह 'चकार' है ऐसा श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं बताया है । यह न्याय केवल कातंत्र की दुर्गसिंहकृत और भावमिश्र कृत दोनों परिभाषावृत्तियों और जैनेन्द्र में नहीं है। ॥१२०॥ चानुकृष्टन न यथासङ्ख्यम् ॥६३॥ 'चकार' से अनुकृष्ट 'नाम' या 'प्रत्यय' के साथ 'यथासङ्ख्यम्' नहीं होता है। 'चकार ' से अनुकृष्ट 'नाम' या 'प्रत्यय' 'यथासङ्ख्यम्' के लिए निकम्मा है । 'यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाम्' न्याय का यह अपवाद है । उदा. 'वौ व्यञ्जनादेः सन् चाय्वः' ४/३/ २५ सूत्र का अर्थ इस प्रकार है । 'वो' अर्थात् 'उ' कार या 'इ' कार उपान्त्य में हो ऐसे व्यञ्जनादि धातु से पर आये 'सेट' 'क्त्वा' और 'सन्' प्रत्यय दोनों विकल्प से 'किद्वद्' होते हैं । अतः 'मुदित्वा, मोदित्वा, मुमुदिषते, मुमोदिषते, लिखित्वा, लेखित्वा, लिलिखिषति, लिलेखिषति।' रूप होंगे । यहाँ 'क्त्वा, सन्' का 'वौ' के साथ संख्या और वचन से साम्य होने पर भी 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि 'क्त्वा' का 'च' से अनुकर्षण किया है। 'यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाम्' न्याय होने पर भी 'वौ व्यञ्जनादेः-' ४/३/२५ सूत्र में अनिष्ट 'यथासङ्ख्यम्' की निवृत्ति के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया, वह इस न्याय का ज्ञापक है। यह न्याय अनित्य होने से 'शक्तार्हे कृत्याश्च' ५/४/३५ सूत्र में 'चकार' से अनुकृष्ट 'सप्तमी' और 'कृत्य' के 'शक्त' और 'अर्ह' अर्थों का 'यथासङ्ख्यम्' न हो इसलिए 'कृत्याः' में बहुवचन . रखा है । यदि यह न्याय नित्य ही होता तो 'कृत्यश्च' रूप एकवचन करने पर भी ‘कृत्यसप्तमी' के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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