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________________ ३१४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'श्वयत्यसूवचपतः श्वास्थवोचपप्तम्' ४/३/१०३ से 'वच्' का 'वोच्' आदेश होता है । अतः यहाँ 'प्रण्यवोचत्' में 'अकखाद्यपान्ते पाठे वा' २/३/८० से 'प्र' से पर आये हुए 'नि' का 'णि' करने के लिए प्रथम बार 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' न्याय की प्रवृत्ति करके 'वोच्' में 'वच्त्व' लाया जायेगा तथापि 'अकखाद्यषान्ते पाठे वा' २/३/८० की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि सूत्र में धातुपाठपठित धातु का ही ग्रहण है । अतः पुनः ‘भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' न्याय की प्रवृत्ति करके ब्रूत्व का उसमें उपचार करके, 'अकखाद्यषान्ते'-२/३/८० से णत्व होगा। इस न्याय का ज्ञापक ‘यवृत् सकृत्' ४/१/१०२ सूत्र है, क्योंकि इसी सूत्र में 'य्वृत्' की प्रवृत्ति सिर्फ एक ही बार करने का विधान किया गया है । अतः जहाँ एक बार 'वृत्' हो गया हो वहाँ संभव होने पर भी पुनः किसी भी संयोग में 'य्वत्' की प्रवृत्ति नहीं होती है। यदि यह न्याय न होता तो ऐसा कहने की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि एक बार किसी एक सूत्र या न्याय की प्रवृत्ति होने के बाद , पुनः उसकी प्रवृत्ति होनेवाली ही नहीं थी तथापि यही 'य्वत् सकृत्' ४/१/ १०२ सूत्र की रचना की गई , उससे ज्ञापन होता है कि 'वृत्' को छोड़कर अन्य सूत्र की, यदि संभावना हो तो पुनः पुनः प्रवृत्ति होती है । उदा. 'व्यग् संवरणे' धातु में 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' ४/२/ १ से 'ए' का 'ओ' होने के बाद कर्म में 'क्य' प्रत्यय करने पर 'संवीयते' प्रयोग में 'व्या' के 'या' का 'यजादिवचेः किति' ४/१/७९ से वृत् होगा और 'वि' बनेगा, किन्तु बाद में 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय से 'वि' में 'यजादित्व' मानकर पुन: 'वि' का 'यवृत्' होकर 'उ' नहीं होता है । उसके लिए 'यवृत्सकृत्' ४/१/१०२ सूत्र बनाया है और इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद 'यवृत्सकृत्' ४/१/ १०२ सार्थक भी होता है। यह न्याय संभावनामूलक होने से, जहाँ असंभव हो या व्याघात इत्यादि हो या निरर्थकविधि हो तो सूत्र या न्याय की पुनः प्रवृत्ति नहीं होती है। इस न्याय का स्वीकार स्वयं श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने भी किया है। उन्होंने 'स्वत्सकृत्'४/१/१०२ की बृहद्वृत्ति में कहा है कि 'यावत्संभवस्तावद्विधिः' न्याय से, पुनः ‘य्वत्' की प्रवृत्ति होने की संभावना होने से, उसका निषेध करने के लिए यही सूत्र बनाया गया है। इस प्रकार शास्त्रकार ने यह न्याय सिद्ध ही हो, ऐसा व्यवहार करके इसी सूत्र की रचना की है , ऐसा लगता है, तथापि इस न्याय का अन्य कोई ज्ञापक प्राप्त न होने से इसी सूत्र को इसका ज्ञापक माना गया है। अन्य किसी की मान्यतानुसार 'एकस्यां व्यक्तावेकं लक्षणं सकृदेव प्रवर्तते' न्याय से 'त्वक त्वक्क्क् ' सिद्ध करने के लिए सिर्फ एक ही बार 'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने ' १/३/३२ सूत्र की प्रवृत्ति होगी और 'त्वक्क्क् ' (तीन क् से युक्त) रूप की सिद्धि नहीं होगी, किन्तु यहाँ प्रथम द्वित्व करते समय 'विराम' निमित्त है, और द्वितीय द्वित्व करते समय पर में आया हुआ 'एकव्यञ्जन' निमित्त है अतः उद्देश्य भिन्न न होने पर भी, उसके निमित्त भिन्न भिन्न होने से 'अदीर्घाद्'- १/३/३२ सूत्र की दो बार प्रवृत्ति हो सकेगी और बाद में पुन: तीसरी बार प्रवृत्ति नहीं होगी क्योंकि दूसरी बार जो निमित्त है वही निमित्त तीसरी बार की प्रवृत्ति करते समय उपस्थित होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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