SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [35] 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्'१/२/२१ सूत्र में इवर्णादि अर्थात् इवर्ण, उवर्ण, ऋवर्ण और लवर्ण कार्यि है क्योंकि उन पर कार्य होता है अर्थात् उसमें परिवर्तन होता है । य, व, र, ल स्वरूप परिवर्तन कार्य कहा जाता है, किन्तु यही कार्य तभी ही होता है जब उनसे अव्यवहित पर में अस्व स्वर अर्थात् विजातीय स्वर आया हो अर्थात् अस्व स्वर उसका निमित्त बनता है। सूत्र में प्राय: सामान्यरूप से कार्यि, निमित्त और कार्य, इसी क्रम से बताया जाता है -- उदा. समानानां तेन दीर्घ १/२/१ यहाँ समान स्वर कार्यि है, उसके बाद 'तेन' शब्द से निर्दिष्ट दूसरा समान स्वर निमित्त है और दीर्घविधि कार्य है। कातंत्र व कालाप परम्परा में यही बात न्याय/परिभाषा के स्वरूप में बतायी है। उनमें कार्यि का निर्णय करने में सहायक अर्थात् कार्यि के विभिन्न स्वरूप बताकर उनमें से कौन से स्वरूपवाला कार्यि यहाँ लेना चाहिए, उसके निर्णय में सहायक न्याय बहुत से हैं। वे इस प्रकार हैं-१. स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा ॥१॥ सुसर्वार्धदिक्शब्देभ्यो जनपदस्य ॥२॥ ३. ऋतोर्वृद्धिमद्विधाववयवेभ्यः ॥३॥ ४. स्वरस्य इस्वदीर्घप्लुताः ॥४॥, ५. आद्यन्तवदेकस्मिन् ॥५॥ ६. प्रकृतिवदनुकरणम् ॥६॥ ७. एकदेशविकृतमनन्यवत् ॥७॥ ८. भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः ॥८॥ ९. भाविनि भूतवदुपचारः ॥९॥, १०. अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ॥१४॥, ११. लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् ॥१५॥, १२. नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् ॥१६॥, १३. प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि ग्रहणम् ॥१७॥, १४. गौणमुख्योर्मुख्य कार्यसम्प्रत्ययः ॥२२॥, १५. कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे ॥२३॥ १६. क्वचिदुभयगतिः ॥२४॥ १७. प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानामपि ग्रहणम् ॥१॥ १८. अदाद्यनदाद्योरनदादेरेव ॥३॥, १९. ऋकारापदिष्टं कार्यं लकारस्यापि ॥१४॥, २०. सकारापदिष्टं कार्यं तदादेशस्य शकारस्यापि ॥१५ ॥ इत्यादि । १५. निमित्त का स्वरूप और निर्णय निमित्त इसे कहा जाता है, जिसके कारण या सांनिध्य से कार्यि में कार्य या परिवर्तन हो । सामान्यतया कार्यि सूत्र में षष्ठी विभक्ति से निर्दिष्ट होता है । कहीं कहीं वह प्रथमा विभक्ति से भी निर्दिष्ट होता है किन्तु वहाँ कार्यि और कार्य का अभेद निर्देश होता है । जबकि निमित्त पंचमी, सप्तमी या तृतीया विभक्ति से निर्दिष्ट होता है। यदि कार्यि से निमित्त अव्यवहित पूर्व में हो तो उसका निर्देश पञ्चमी विभक्ति से होता है। उदा. (अतः) 'भिस ऐस्' १/४/२, यहाँ अकार से पर आये हुए 'भिस्' का 'ऐस्' आदेश होता है । उसमें अकार निमित्त है, 'भिस्' कार्यि है और ऐस्' कार्य है । यहाँ निमित्त स्वरूप अकार, कार्यि 'भिस्' से अव्यवहित पूर्व में है, अतः वह अतः' शब्द द्वारा पञ्चमी से निर्दिष्ट है। जहाँ निमित्त, कार्यि से अव्यवहित पर में हो, वहाँ वही निमित्त सप्तमी से निर्दिष्ट होता है । उदा. 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्' १/२/२१, यहाँ इवर्ण, उवर्ण, ऋवर्ण लवर्ण कार्यि है, अस्व स्वर निमित्त है और 'यवरल' कार्य है। यहाँ निमित्त स्वरूप अस्व स्वर, कार्यिस्वरूप इवर्ण इत्यादि से अव्यवहित पर में हैं, अत: उसका सप्तमी से निर्देश किया गया है। अव्यवहित पूर्व में आये और पञ्चमी से निर्दिष्ट तथा अव्यवहित पर में आये हुए और सप्तमी से निर्दिष्ट निमित्त शायद वैसा ही रहता है। उसमें उसी सूत्र से कोई परिवर्तन नहीं होता है किन्तु तीसरे प्रकार का निमित्त जो अव्यवहित पर में होता है और तृतीया विभक्ति से निर्दिष्ट होता है, उसका पाणिनीय परम्परा अनुसार लोप होता है। जबकि सिद्धहेम की परम्परा अनुसार कार्यि और निमित्त दोनों मिलकर एक आदेश होता है । उदा. 'अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल' १/२/६, यहाँ अवर्ण कार्यि है, उससे अव्यवहित पर में आये हए इवर्ण, उवर्ण, ऋवर्ण, लुवर्ण तृतीया विभक्ति से निर्दिष्ट निमित्त है और एत्, ओत्, अर्, अल् कार्य है । यहाँ कार्यि और निमित्त दोनों .56. द्रष्टव्य : परिभाषासंग्रह - तालिका - पृ. ४७२, क्र. नं. १३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy