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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०६) २९९ वर्जन किया गया है । उसका प्रत्युत्तर देते हुए शास्त्रकार ने बृहन्यास में कहा है कि 'अधातु' में 'पर्युदास नञ्' लेने से तत्सदृश का ग्रहण होगा और जहाँ पर्युदास नञ् हो, वहाँ विधि-निषेध में से विधि ही बलवान् होने से, उसका ही ग्रहण हो सकता है । अतः निषेध की प्रवृत्ति नहीं होगी और नाम संज्ञा नि:संकोच होगी । अन्य वैयाकरण, क्विबन्त में धातुत्व का ही स्वीकार करते हैं । अत: वहाँ धातुभिन्नत्व का संभव न होने से, कृदन्त को 'नाम' संज्ञा करने के लिए 'कृत्तद्धितसमासाश्च' स्वरूप स्वतंत्र सूत्र बनाया है। सिद्धहेम की परम्परा में क्विबन्त (कृदन्त) सत्त्ववाचि होने से धातुभिन्न है और अविकृत होने से तत्सदृश भी है, ऐसा स्वीकार किया गया है। ॥१०६॥ उभयस्थाननिष्पन्नोऽन्यतरव्यपदेशभाक् ॥४९॥ पूर्व और पर, दोनों स्थानि के स्थान पर हुए एक ही आदेश, दो में से किसी एक के स्थान पर हुआ माना जाता है। उदा. पुत्र, माता और पिता, दोनों का है तथापि एकसाथ किसी एक के पुत्र स्वरूप में व्यवहार किया जाता है। दोनों स्थानि सम्बन्धित कार्य की एकसाथ प्राप्ति हो तब दो में से किसी एक ही स्थानि के स्वरूप में उसका व्यपदेश हो सकता है ऐसा यह न्याय कहता है (अन्यतर का अर्थ करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं "अन्यतर अर्थात् एकस्मिन् काले कस्यचिदेकस्यैव व्यपदेशं लभते नोभयोः।") उदा. 'आङ्' से पर 'ईषि गत्यादौ' धातु हो तो, आ + ईष्यः एष्यः, बाद में 'प्र' के योग में 'आङ्' और 'ई'-दोनों के स्थान में हुए 'ए' को जब 'आङ्' का आदेश माना जायेगा तब 'ओमाङि' १/२/१८ से 'प्र' के 'अ'का लोप होकर 'प्रेष्यः' होगा । जबकि धातु के आदेश के रूप में 'ए' को मानने पर 'उपसर्गस्यानिणेधेदोति' १/२/१९ से 'प्र' के 'अ' का लोप होने की प्राप्ति है किन्तु 'उपसर्गस्या-' १/२/१९ का बाध करके विशेषविधिस्वरूप 'प्रस्यैषैष्योढोढयूहे स्वरेण' १/२/ १४ से ऐत्व होकर 'प्रैष्यः' रूप होगा । इस न्याय का ज्ञापन 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्रगत 'प्रत्यये' शब्द से होता है । इसी सूत्र में प्रत्यय शब्द न रखा होता, तो भी 'प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव' न्याय से प्रत्यय का ही ग्रहण होनेवाला था, तथापि 'प्रत्यये' शब्द रखा, वह इस न्याय का इस प्रकार ज्ञापन करता है । 'धा' धातु से 'वस्' प्रत्यय होने पर धातु का द्वित्व होगा, बाद में पूर्व 'धा' में स्थित 'आ' का इस्व होगा और 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी' ४/१/४२ से 'द' होने पर 'दधा + वस्' होगा, बाद में 'श्नश्चातः' ४/२/९६ से धातु के 'आ' का लोप होकर 'दध्वस्' होगा, फिर 'ध्' का 'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने' १/३/३२ से द्वित्व करने पर 'दध्वस्' होगा । अब यहाँ 'दध्ध्वस्' में स्थित 'ध्व' प्रकृति प्रत्यय दोनों के स्थान में हुआ है। अतः उसमें प्रत्ययत्व आयेगा, तो द्वित्वभूत 'धू' में से प्रथम 'धू' के कारण चतुर्थान्तत्व आयेगा, तो 'गडदबादेः'- २/१/७७ से आदि 'द' का 'ध' करना पडेगा, तो 'धद्ध्वः ' ऐसा अनिष्ट रूप होगा, वह न हो, उसके लिए 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्र में प्रत्यय' रखा है । उससे किसी भी न्याय की अपेक्षा रहित - जो स्वाभाविक प्रत्यय है, वैसा प्रत्यय पर में आया हो, तो ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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