SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) है। जबकि दूसरी ओर उसी नाम को अव्युत्पन्न अर्थात् प्रकृति-प्रत्यय विभाग रहित मानने चाहिए। ये दोनों विधान परस्पर विरुद्ध हैं क्योंकि जो उणादि प्रत्ययान्त हैं, वे अव्युत्पन्न नहीं हैं क्योंकि उनमें प्रकृति-प्रत्यय विभाग है और जो अव्युत्पन्न हैं, वे उणादि प्रत्ययान्त नहीं हैं क्योंकि उसमें प्रकृतिप्रत्यय विभाग नहीं है । अतः यहाँ शंका पैदा होती है कि उणादि प्रत्ययान्त शब्द किस प्रकार अव्युत्पन्न माने जाते हैं ? उसी शंका का समाधान इस प्रकार है -: उणादि सूत्र से सिद्ध होनेवाले शब्द में प्रकृति-प्रत्यय की कल्पना, शास्त्रकार आचार्यश्री ने केवल शिष्यों को शब्द और शब्द के वर्ण की आनुपूर्वी का ज्ञान कराने के लिए ही की है । वस्तुतः ये शब्द रूढ होने से उसमें प्रकृतिप्रत्यय विभाग है ही नहीं । ___ 'तृस्वसृ नप्तृ-' १/४/३८ सूत्र में 'नप्त' इत्यादि उणादिप्रत्ययान्त शब्दों को अव्युत्पन्न माना जाय तो क्या अर्थ होता है ? इसके बारे में श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं बृहद्वृत्ति और उनके शब्दमहार्णव न्यास में बताया है कि तृ प्रत्यय अर्थवान् है, जबकि उणादि प्रत्ययान्त ‘नप्तृ' इत्यादि में तृ अनर्थक है क्योंकि वे अव्युत्पन्न है । अतः 'तृ' के ग्रहण से नप्त इत्यादि का ग्रहण नहीं हो सकता है । उसी कारण से 'नप्तृ' इत्यादि का पृथगुपादान किया है। यही पृथगुपादान 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्याय का ज्ञापन करता है । इस प्रकार आचार्यश्री ने स्वयं उणादि प्रत्ययान्त शब्दों को व्युत्पन्न तथा अव्युत्पन्न दोनों प्रकार के माने हैं । अतः यह न्याय लक्ष्यानुसारी है । श्री लावण्यसूरिजी कहते हैं कि महर्षि पाणिनि को अव्युत्पत्तिपक्ष ही अभिमत हो ऐसा प्रतीत होता है । इसके बारे में चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि 'आयनैयीनीयियः फ-ढ-ख-छ-धां प्रत्ययादीनाम्' (पा. ७/१/२) सूत्र के महाभाष्य में इस प्रकार शंका की गई है । इस सूत्र से 'फ' इत्यादि वर्गों के 'आयन्' इत्यादि आदेश होते हैं, वैसे 'शङ्ख, षण्ढ' इत्यादि उणादि प्रत्ययान्त शब्दों के प्रत्यय स्वरूप 'ख-ढ' इत्यादि वर्ण हैं उनका भी इसी सूत्रनिर्दिष्ट आदेश होंगे, किन्तु 'प्रातिपदिकविज्ञानाच्च पाणिनेः सिद्धम्' वार्तिक कहता है कि उणादि प्रत्ययान्त शब्दों को अव्युत्पन्न प्रातिपदिक मानने से ख-ढ इत्यादि वर्गों के आयनैयीनीयियः (पा. ७/१/२) से सूत्रनिर्दिष्ट आदेश नहीं होगें। परिभाषेन्दुशेखर में नागेश ने कहा है कि महर्षि पाणिनि ने 'वपुषा, सर्पिषा, यजुषा' इत्यादिगत शब्दों को छोड़कर अन्य उणादि प्रत्ययान्त शब्दों को अव्युत्पन्न माने हैं। इसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं 'वपुषा, सर्पिषा' इत्यादिगत उणादि प्रत्ययान्त शब्द के उणादि प्रत्यय सम्बन्धित 'स' में कृतत्व लाकर 'षत्व' की प्राप्ति कराने के लिए उणादि में व्युत्पत्तिपक्ष माना गया है किन्तु यही षत्व 'उणादयो' ५/२/९३ सूत्र के 'बहुलम्' ग्रहण से सिद्ध हो सकता है । वह इस प्रकार :- 'बहूनि कार्याणि लाति बहुलम्' इस व्युत्पत्ति द्वारा अलाक्षणिक कार्य की भी सिद्धि होती है और इस प्रकार 'षत्व' के लिए 'स' में कृतत्त्व भी लाया जा सकता है । इस प्रकार उनको (पाणिनिको) अव्युत्पत्तिपक्ष स्वीकार्य है ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं) सिद्धहेम के पश्चात्कालीन सभी परिभाषासंग्रहों में इसी न्याय का स्वीकार किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy