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________________ २७८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) और समास, अभिधान लक्षणयुक्त होने चाहिए । उदा. 'स च चैत्रश्च तौ, यश्च मैत्रश्च यौ' प्रयोग में 'त्यदादिः' ३/१/१२० से एकशेष समास हुआ है और वही 'तो' और 'यौ' में अनुक्रम से चैत्र और मैत्र स्वरूप अन्यपद का भाव द्विवचन द्वारा अभिव्यक्त हो सकता है । जबकि यहाँ 'तदतदात्मकं' में 'तद्' और 'अतद्' का (तच्च अतच्च ) एकशेष समास करने पर 'ते' स्वरूप होगा । यही 'ते' में से 'अतद्' शब्द का भाव अभिव्यक्त नहीं हो सकता है, अतः यहाँ एकशेष करना उचित नहीं है और यही बात 'त्यदादिः' ३/१/१२० सूत्र का लघुन्यास देखने से स्पष्ट हो जाती है। समाहारद्वन्द्व (द्वन्द्वैकत्व) की अनित्यता के बारे में भी थोड़ा सा विचार करना आवश्यक है। श्रीलावण्यसूरिजी समाहारद्वन्द्व की अनित्यता का स्वीकार नहीं करते हैं । द्वन्द्वैकत्व की वस्तुस्थिति इस प्रकार है - जहाँ द्वन्द्वसमास गत अवयव सम्बन्धित संख्या की विवक्षा हो वहाँ द्विवचन, बहुवचन होता है किन्तु यदि समुदाय की विवक्षा हो तो समाहारद्वन्द्व होता है । इस परिस्थिति में जहाँ द्वन्द्वैकत्व हो, वहाँ निश्चय ही समुदाय की विवक्षा का आदर करना चाहिए । 'शङ्खदुन्दुभिवीणाः' प्रयोग में यद्यपि तूर्यांगत्व के कारण एकत्व की प्राप्ति है, तथापि 'दुन्दुभिश्च वीणा च' विग्रह करके 'दुन्दुभिवीणम्' स्वरूप समाहारद्वन्द्व करने के बाद 'शङ्खौ च ( शङ्खश्च) दुन्दुभिवीणं च' विग्रह करने पर समाहार द्वन्द्व नहीं होता है किन्तु इतरेतरयोग ही होता है, और यही बात 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' ३/१/१३७ के लघुन्यास से स्पष्ट हो जाती है । उन्होंने बताया है कि यदि 'मृदङ्गाश्च शङ्खपटहं च' विग्रह किया जाय तो तूर्याङ्ग समुदाय के कारण समाहारद्वन्द्व नहीं होता है । उसी प्रकार से 'शङ्खदुन्दुभिवीणा:' में भी समाहारद्वन्द्व नहीं होता है और उसके लिए द्वन्द्वैकत्व के अनित्यत्व की कल्पना न करनी चाहिए । दूसरी बात यह कि 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' ३/१/१३७ के बहुवचन को, इसी द्वन्द्वैकत्व की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में बताया है किन्तु वह उचित नहीं है क्योंकि बृहद्वृत्ति में उसे, इस न्यायांश के ज्ञापक के रूप में बताया नहीं है और वहाँ बहुवचन रखने का प्रयोजन दूसरा बताया है। शास्त्रकार इसी बहुवचन की सार्थकता और पृथग्योग का कारण बताते हुए कहते हैं कि प्राणि के अङ्ग और तूर्य के अङ्ग का जब द्वन्द्व समास होता है तब, प्राणि जातिवाचक नहीं होने से 'अप्राणिपश्वादेः' ३/१/१३६ से ही समाहारद्वन्द्व हो जाता था किन्तु वहाँ जाति की विवक्षा थी। यहाँ 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' में व्यक्ति की विवक्षा है तथा जाति की विवक्षा में भी प्राण्यङ्ग और अप्राण्यङ्ग इत्यादि का मिश्रण हो तो एकवचन न हो, इसके लिए पृथग्योग किया है । इसका ज्ञापन करने के लिए 'प्राणितूर्याङ्गाणाम्' ३/१/१३७ में बहुवचन रखा है । उसका उदाहरण बृहद्वृत्ति में 'पाणिपणवौ' तथा 'पाणिगृध्रौ' दिया है। अतः यही बहुवचन सार्थक होने से द्वन्द्वैकत्व की अनित्यता का ज्ञापक नहीं बन सकता है । इस प्रकार द्वन्द्वैकत्व की अनित्यता के उदाहरण और ज्ञापक सही नहीं है और अन्य उदाहरण व ज्ञापक मिलने की संभावना भी नहीं है, अतः द्वन्द्वैकत्व की अनित्यता न माननी चाहिए। श्रीलावण्यसूरिजी दीर्घविधि की अनित्यता का भी स्वीकार नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि 'कुर्दनः' इत्यादि का अन्य व्याकरण में दीर्घपाठ प्राप्त होता है और 'स्फूर्ख, ऊर्ज, ऊर्गु' इत्यादि में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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