________________
२६०
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) भी बताया है । उन्होंने 'वृत्त्यन्तोऽसषे १/१/२५ की बृहद्वृत्ति के 'परार्थाभिधानं वृत्तिः तद्वांश्च पदसमुदायः समासादिः' की समझ देते हुए न्यास में कहा है कि यहाँ 'आदि' शब्द से 'नामधातु' और 'तद्धित' का संग्रह करना । इस प्रकार उन्होंने त्रैविध्य बताया है।
. जबकि 'समर्थः पदविधिः' ७/४/१२२ सूत्र की बृहद्वृत्ति में कहा है कि 'समास-नामधातुकृत्-तद्धितेषु वाक्ये व्यपेक्षा, वृत्तावेकार्थीभावः ।' इन शब्दों द्वारा वृत्ति के चार प्रकार उन्होनें बताये हैं । हालाँकि 'कद्वृत्ति' का 'समास' में अन्तर्भाव हो सकता है।
एकशेष' के वृत्तित्व के लिए श्रीलावण्यसूरिजी ने इस प्रकार विचार किया है। वे कहते हैं कि 'एकशेष' में जो एक बचता है उससे ही लुप्त हुए पद का अभिधान होता है । ऐसा स्वीकार किया गया है । अतः परार्थाभिधान' स्वरूप वृत्ति का लक्षण 'एकशेष' में भी रहता ही है । इसी कारण से बृहद्वृत्ति में 'समानानामर्थेनैकः शेषः' ३/१/११८ सूत्र में कहा है कि 'द्वन्द्वापवादश्चायम्'। इन शब्दों के आधार पर श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि शास्त्रकार ने 'एकशेष' में समासरूपवृत्ति के अपवादस्वरूप वृत्तित्व का स्वीकार किया है।
किन्तु द्वन्द्व भी समास ही है और एकशेष भी समास है । अतः द्वन्द्व समास के अपवादस्वरूप एकशेष में वृत्तित्व हो, इसमें कुछ नया नहीं है । अतः एकशेष को समास से पृथक् वृत्ति न माननी चाहिए, तथापि अन्य समास में उभय पद दृश्यमान होते हैं, जबकि यहाँ केवल एक ही पद दृश्यमान होता है । अतः उसका वैशिष्ट्य बताने के लिए 'एकशेष' को भिन्न वृत्ति मानी हो ऐसा लगता है।
श्री भट्टोजी दीक्षित ने ‘कृत्-तद्धित-समासैकशेष' और 'सनाद्यन्त' धातुस्वरूप पाँच प्रकार की वृत्ति बतायी है । 'नामधातु' को 'सनाद्यन्त' धातु में सम्मिलित किया गया है।
यह न्याय अन्य किसी भी परिभाषा संग्रह में न्याय या परिभाषा के स्वरूप में प्राप्त नहीं है, तथापि सर्व व्याकरण परम्परा में इसके अनुसार व्यवहार किया गया है।
॥९०॥ एकशब्दस्यासङ्ख्यात्वं क्वचित् ॥३३॥ 'एक' शब्द में क्वचित् सङ्ख्यात्व नहीं होता है।
'एक' शब्द की संख्या के रूप में प्रसिद्धि होने से, उसमें 'सङ्ख्यात्व' होता ही है, ऐसी मान्यता का निषेध करने के लिए यह न्याय है।
उदा. 'एकम् अहः-एकाहम् । यहाँ इस समास में 'एक' शब्द होने पर भी उसे संख्या के रूप में नहीं लिया गया है । अतः 'अह्नः' ७/३/११६ से 'एकाहन्' से अट् समासान्त होगा, 'नोऽपदस्य तद्धिते' ७/४/६१ से अन्त्यस्वरादि का लोप होगा और 'अहनिर्युहकलहाः' (लिङ्ग पु. १५/३) से पुंस्त्व प्राप्त होने पर भी 'अहःसुदिनेकतः' (लिङ्ग न. ८/२) से होनेवाली विशेषविधि से नपुंसकत्व होने पर 'एकाहम्' होगा ।
यदि 'एक' को संख्या के रूप में लिया जाय तो 'सर्वांशसङ्ख्याऽव्ययात्' ७/३/११८ से 'एकाहन्' से 'अट्' समासान्त होगा और उसी सूत्र से 'अहन्' का 'अह्न' आदेश होकर 'अर्द्धसुदर्शनदेवनमह्ना' (लिङ्ग. पु.११/१) से पुंस्त्व प्राप्त होने पर 'एकाह्न' ऐसा अनिष्ट रूप होगा ।
en Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org