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________________ २५८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) इति पुत्रकाम्यति ।' इसमें से समास में उसके अवयव के रूप में दो या दो से अधिक पद रहते हैं जबकि अन्य दो वृत्तियों में उनके अवयवों के रूपों में प्रकृति और प्रत्यय होते हैं । इस प्रकार समास में भिन्नपद और शेष दो वृत्ति में प्रकृति और प्रत्यय संयुक्त होकर, समुदाय के अर्थ को कहते हैं और इस प्रकार पर अर्थ अर्थात् समुदाय के अवयव अपने अर्थ को छोड़कर जो कहते हैं, उसे वृत्ति कही जाती है। उसमें जब, वाक्य द्वारा जिसका कथन किया जा सकता है, उसके लिए जब वृत्ति का आश्रय लिया जाता है तब 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधको भवति' न्याय से, वही वृत्ति उसी वाक्य की बाधक बनती है अर्थात् वृत्ति होती हो तो वृत्ति ही करनी पड़ती है किन्तु उसके विग्रहवाक्य का प्रयोग नहीं किया जा सकता है । उसी बाध को रोककर उसी विग्रहवाक्य का भी विकल्प से प्रयोग किया जा सकता है, उसका ज्ञापन करने के लिए यह न्याय है और जब उत्सर्ग और अपवादस्वरूप दोनों वृत्ति की संभावना हो तब हमेशां अपवाद ही होता है किन्तु उत्सर्ग कदापि नहीं होता है अर्थात् वृत्ति के पक्ष में उत्सर्ग का अपवाद से हमेशां बाध होता है ऐसा यह न्याय कहता है। ___ 'समासवृत्ति' इस प्रकार है । 'कायस्य पूर्वोऽशः पूर्वकायः ।' यहाँ 'पूर्वापराधरोत्तर'-३/१/ ५२ से 'पूर्वकायः' स्वरूप अंशितत्पुरुष समास और 'कायस्य पूर्वोऽशः' इस प्रकार वाक्य भी होता है। किन्तु 'षठ्ययत्नाच्छेषे' ३/१/७६ से औत्सर्गिक 'कायपूर्वः' स्वरूप षष्ठी तत्पुरुष समास नहीं होगा। इस न्याय के आद्यांश का ज्ञापन 'नित्यं प्रतिनाऽल्पे' ३/१/३७ सूत्रगत 'नित्यं' शब्द से होता है । यही 'नित्यं' शब्द इस न्याय से प्राप्त वाक्यस्वरूप विकल्प का निषेध करने के लिए है । अतः यहाँ 'शाकस्याल्पत्वं शाकप्रति' में 'शाकप्रति' समास ही होगा किन्तु वाक्य नहीं होगा, अत एव वाक्य में 'प्रति' शब्द का प्रयोग नहीं होगा। और इस न्याय के द्वितीय अंश 'वृत्तिविषये नित्यैवापवादवृत्तिः' का ज्ञापन 'पारेमध्येऽग्रेऽन्तः षष्ठ्या वा' ३/१/३० सूत्रगत 'वा' शब्द से होता है । वही 'वा' स्वरूप विकल्प के ग्रहण से जब 'पारेमध्ये-'३/१/३० से 'पारेगङ्गम्' नहीं होगा, तब, इस न्याय से निषिद्ध 'षष्ठ्ययत्नाच्छेषे' ३/१/ ७६ से होनेवाला औत्सर्गिक 'गङ्गापारम्' ऐसा षष्ठीतत्पुरुष होगा और 'गङ्गायाः पारम्' स्वरूप वाक्य भी इसी न्याय के प्रथम अंश से होगा अर्थात् इसी समास के तीन रूप होंगे । १. पारेगङ्गम् २. गङ्गापारम् और ३. गङ्गायाः पारम् । यदि यह न्यायांश न होता तो, अनुक्रम से ही उत्सर्ग और अपवाद की प्रवृत्ति हो सकती और षष्ठी समास भी होता । तो उसके लिए 'वा' ग्रहण क्योंकिया ? किन्तु वही 'वा' ग्रहण इस न्यायांश की शंका से ही किया है । अतः 'वा' ग्रहण इस न्यायांश का ज्ञापन करता है। तद्धितवृत्ति इस प्रकार है :- 'गर्गस्यापत्यं वृद्धं गार्ग्यः' यहाँ 'गर्गादेः'- ६/१/४२ से 'यञ्' प्रत्यय और वाक्य होगा, किन्तु 'अतः इञ्'६/१/३१ से होनेवाला औत्सर्गिक इञ्' प्रत्यय नहीं होगा और 'गार्गि' रूप नहीं होगा । यही तद्धितवृत्ति विकल्प से होती है, इसका ज्ञापन 'नित्यं अजिनोऽण्' ७/३/५८ के 'नित्यं' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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