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________________ २२४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ४/३/९७ सूत्र की वृत्ति में बताये गये शब्द -'मां- मांङ् मेंङाम् ग्रहणम्' इस न्याय से प्राप्त अर्थ को ही बताता है अर्थात् वह इस न्याय के फलस्वरूप ही है । अतः इस न्यायांश के ज्ञापक के रूप में उसे बताया नहीं जा सकता है । और 'प्राज्ज्ञश्च' ५/१/७९ सूत्र की वृत्ति में 'षण्णां दारूपाणां ग्रहणम्' ऐसा श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने स्वयं नहीं कहा है किन्तु उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा है कि 'इह पूर्वं सूत्रे च दारूपं गृह्यते न संज्ञा, ज्ञा-ख्यासाहचर्यात्' । अतः दारूप सर्व धातु का ग्रहण होगा और छः प्रकार के 'दारूप' धातुओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं। और केवल इतने से ही उसके द्वारा इस न्याय का ज्ञापन होता है ऐसा कहना उचित नहीं है । अतः 'गा' अंश में बताये गए ज्ञापक से ही संपूर्ण न्याय का ज्ञापन होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए । इस न्याय की अनित्यता ‘गस्थकः' ५/१/६६ सूत्र से श्रीहेमहंसगणि ने बताई है किन्तु उससे इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन नहीं होता है क्योंकि 'थक' प्रत्यय 'शिल्पी' (कलाकार) के अर्थ में होता है और 'गांङ्' धातु 'गत्यर्थक' होने से उससे 'शिल्पी' अर्थ में 'थक' प्रत्यय होनेवाला ही नहीं है । अतः यहाँ 'ग:' शब्द से (गायति) 'गै' धातु का ग्रहण किया है। ऐसी शंका श्रीलावण्यसूरि तथा श्रीहेमहंसगणि दोनों ने की है और श्रीहेमहंसगणि ने उसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा है कि इस न्याय से दोनों प्रकार के 'गा' धातुओं का ग्रहण संभवित था तथापि एक का ही ग्रहण किया, उससे ज्ञापित होता है कि इस न्याय की यहाँ प्रवृत्ति नहीं की गई है । अतः वह इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक है किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी की इस बात के प्रति स्पष्टरूप से अरुचि दिखायी पड़ती है। वे तो कहते हैं कि केवल इतने से ही यही सूत्र इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक नहीं बन सकता है। किन्तु वहाँ भी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी को इस न्याय की प्रवृत्ति का स्वीकार ही इष्ट/अभिप्रेत है । अन्यथा उन्होंने स्वयं यहाँ इस न्याय की अनित्यता बतायी होती, किन्तु इसके स्थान पर उन्होंने कहा कि 'गांङ्' धातु गत्यर्थक होने से उससे हुए प्रत्यय द्वारा 'शिल्पी' अर्थ प्रकट नहीं हो सकता है और 'गमन' क्रिया, शिल्प या कौशल का विषय ही नहीं है और लघुन्यासकार ने भी इसी सूत्र की प्रवृत्ति में इस न्याय की अनित्यता का आश्रय नहीं किया है। इस न्याय में 'प्राज्ज्ञश्च' ५/१/७९ सूत्र के सम्बन्ध में छ प्रकारों के ही दा धातु क्यों दिये ? और सातवाँ 'दीङ्च् क्षये' धातु 'यबक्ङिति' ४/२/७ सूत्र से दा रूप होता है तथापि क्यों नहीं दिया है ? उसकी स्पष्टता करते हुए श्रीहेमहंसगणि ने न्यास में कहा है कि 'दीङ्च् क्षये 'धातु अकर्मक है । जबकि 'प्राज्ज्ञश्च' ५/१/७९ सूत्र में कर्म से पर आये हुए दा रूप धातु लेना है । अतः 'दीड च् क्षये' धातु कभी भी कर्म से पर आता नहीं है, उसी कारण से ही यहाँ उसका उदाहरण नहीं दिया है। जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति को छोड़कर, अन्य किसी भी सिद्धहेम के पूर्ववर्ती परिभाषासंग्रह में यह न्याय नहीं है, जबकि पश्चात्कालीन सभी परिभाषासंग्रहों में यह न्याय है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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