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________________ २१६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) शब्द जिसकी आदि में है, वैसे प्रत्येक शब्द को 'द्वारादेः' ७/४/६ से होनेवाले कार्य की प्राप्ति का अभाव है, अत: 'श्वादि' शब्द से उसी कार्य की प्राप्ति ही नहीं है, तथापि उसका निषेध किया, वह 'तदादिविधि' द्वारा उसी कार्य की प्राप्ति का ज्ञापन स्पष्टतया कराता है । यहाँ 'तदादि' कार्य का निषेध किसी भी न्याय से हुआ प्रतीत नहीं होता है। आगे 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ की बृहद्वृत्ति में 'न्यग्रोध' शब्द के व्युत्पत्तिपक्ष और अव्युत्पत्तिपक्ष का आश्रय करके सूत्र का अर्थ बताया है और केवलस्येति किम् ?' कहकर उदाहरण के रूप में 'न्यग्रोधमूले भवाः न्याग्रोधमूलाः शालयः' 'न्यग्रोधाः सन्ति अस्मिन्', 'ऋश्यादित्व' से चातुरर्थिक 'क' प्रत्यय करने पर 'न्यग्रोधकम्' होगा और 'तत्र भवो न्याग्रोधकः' दिए हैं । इस प्रकार समासघटक और प्रत्ययान्तघटक 'न्यग्रोध' शब्द का 'केवल' शब्द द्वारा व्यावर्तन होता है, ऐसा बताकर 'इदमपि द्वारादीनां तदादेविधेापकम्' कहा है और लघुन्यासकार ने 'इदमपि' की स्पष्टता करते हुए कहा है कि 'न केवलं श्वादेः', इस प्रकार 'श्वादि' शब्दों से 'तदादिविधि' का निषेध किया है। और इस प्रकार सिर्फ/मात्र 'केवलस्य' शब्द को ही ज्ञापक बताया है। अब संपूर्ण सूत्र ज्ञापक क्यों नहीं बनता है ? इसकी चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/ ७ सूत्र की बृहद्वृत्ति के शब्दों में कहते हैं कि 'यही सूत्र क्यों किया ?' तो कहते हैं कि 'न्यग्रोहतीति' अर्थानुसार जब व्युत्पतिपक्ष का आश्रय किया जायेगा तब 'न्यक्' शब्द की सिद्धि करते समय, जो 'नि' शब्द से प्रथमा है, उसी अपेक्षा से, 'नि' का इकार पदान्त में होने से, उसके स्थान पर हुआ 'य' भी पदान्त में होगा, अतः 'यवः पदान्तात् प्रागैदौत्' ७/४/५ से ही 'ऐ' आगम होनेवाला था, तथापि इस सूत्र की रचना की, वह नियम के लिए है और यदि अव्युत्पत्तिपक्ष का आश्रय करेंगे तो, 'य' पदान्त में नहीं होगा । अतः 'य्वः पदान्तात्-' ७/४/५ से 'ऐ' आगम नहीं हो सकता है, अतः उसके लिए यह सूत्र किया । यह अर्थ विधिपरक है । ऐसे संपूर्ण सूत्र का दोनों पक्षों में सार्थक्य होने से 'द्वारादि' शब्द में तदादिविधि का वह ज्ञापक है, ऐसा कथन बृहवृत्ति से सम्मत नहीं लगता है। इसके बारे में विशेष चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी अपनी 'तरंग' नामक टीका में कहते हैं कि यदि 'न्यङ्कुचर्मन्' से 'न्योर्वा ७/४/८ सूत्र से दो रूप इष्ट हैं या एक ही रूप ? और वह कौन-सा रूप इष्ट है ? इसका निर्णय करना चाहिए । यदि सिर्फ 'न्याङ्कचर्मणम्' रूप ही इष्ट होता तो यहाँ अव्युत्पत्तिपक्ष का ही आश्रय करना चाहिए क्यों कि जित् णित् तद्धित प्रत्यय और 'न्यङ्क' शब्द के बीच अव्यवधान होना चाहिए, वह यहाँ प्राप्त नहीं है । अतः 'न्यकोर्वा' ७/४/८ सूत्र की प्रवृत्ति स्वयं ही नहीं होगी और 'य्वः पदान्तात्'७/४/५ सूत्र की भी प्रवृत्ति नहीं होगी क्यों कि इसी सूत्र में भी 'न्यत' शब्द और निमित्त के रूप जित् णित् प्रत्यय के बीच अव्यवधान ही होना चाहिए, ऐसा बताया है, जो 'न्यचर्मन्' में प्राप्त नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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