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________________ २०९ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७५) ऊपर बताया उसी प्रकार यहाँ 'सूत्रनड' शब्द में 'नड' शब्द के प्राधान्य की विवक्षा की गयी है, अतः केवल 'नड' शब्द से जैसे 'आयनण' होता है, वैसे 'सूत्रनड' शब्द से भी 'आयनण्' प्रत्यय होने की प्राप्ति है, किन्तु इस न्याय से निषेध किया गया होने से 'आयनण्' नहीं होगा किन्तु 'अत इञ्' ६/१/३१ से 'इञ्' प्रत्यय ही होगा । इस प्रकार जब अवयव के प्राधान्य की विवक्षा की जायेगी तब ही इस न्याय की प्राप्ति/ प्रवृत्ति का संभव है। अन्यथा 'नाम' के ग्रहण से निर्दिष्ट कार्य, वही 'नाम' जिसके अन्त में हो ऐसे समास आदि को कहीं भी प्राप्त नहीं है । अतः यह न्याय निरवकाश या व्यर्थ हो जाता है, अत एव 'नामग्रहण' से निर्दिष्ट कार्य, वही 'नाम' रूप अवयव के प्राधान्य की विवक्षा हो, ऐसे समास आदि को उसी कार्य की प्राप्ति होती है, उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है। इस न्याय का ज्ञापन 'मालेषीकेष्टकस्याऽन्तेऽपि भारितूलचित्ते' २/४/१०२ सूत्रगत 'अन्त' शब्द से होता है । वह इस प्रकार है -: यहाँ 'मालेषीकेष्टक'–२/४/१०२ में 'अन्त' शब्द का ग्रहण करने से 'मालभारि' शब्द की तरह 'उत्पलमालभारि' इत्यादि प्रयोग में भी हूस्व होता है । ___ यदि अवयवप्राधान्य की विवक्षा करने से ही 'माला' शब्द की तरह ‘उत्पलमाला' इत्यादि शब्द के अन्त्य का ह्रस्व हो ही जाता तो, यहाँ 'अन्त' शब्द का ग्रहण क्यों किया ? अर्थात् ग्रहण न किया होता किन्तु 'माला' स्वरूप 'नामग्रहण' से निर्दिष्ट हुस्वविधि, इस न्याय से 'उत्पलमाला' इत्यादि शब्दों से नहीं होती है। अतः वहाँ इस्वविधि करने के लिए सूत्र में अन्त' शब्द रखा गया है। यह न्याय अनित्य होने से व्याश्रय महाकाव्य में (सर्ग -२, श्लोक-६७) 'प्रियासृजोऽसावपृणद द्विडस्ना' पंक्ति में 'प्रियासृजः' और 'द्विडस्ना' दोनों प्रयोग में समास के अन्त में आये 'असृज्' का 'दन्तपाद-नासिका-हृदयासृग्-यूषोदक-दोर्यकृच्छकृतो दत्पन्नस् हृदसन्-युषन्नुदन् दोषन् यकञ्छकन् वा' २/१/१०१ से विकल्प से 'असन्' आदेश किया है। इस न्याय के तरलत्व का ज्ञापन 'केवलसखिपतेरौः' १/४/२६ सूत्रस्थ 'केवल' शब्द से होता है। और उसी 'केवल' शब्द के कारण ही 'प्रियसखौ, नरपतौ 'इत्यादि प्रयोग में 'ङि' प्रत्यय का 'औ' आदेश नहीं होता है। यदि यह न्याय नित्य होता तो 'सखिपतेरौः' सूत्ररचना करने पर भी 'प्रियसखौ, नरपतौ' इत्यादि में 'औत्व' का निषेध हो ही जाता, तो सूत्र में 'केवल' शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता? अर्थात न किया जाता, तथापि केवल' शब्द का प्रयोग किया है, वह इस न्याय की अनित्यता सूचित करता है। 'उपपदविधिषु न तदन्तविधिः' स्वरूप एक दूसरा न्याय भी कहीं कहीं प्राप्त होता है । उसका अर्थ इस प्रकार है :- जहाँ कोई निश्चित उपपद से पर आये हुए कोई निश्चित धातु से निश्चित प्रत्यय होता हो, वहाँ वही उपपद यदि किसी समास के अन्त में आया हो तो वैसे समास से पर आये हुए, उसी धातु से भी, वही प्रत्यय नहीं होता है। ૧૮ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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