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________________ 'सग द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६७) १७९ इस न्याय से 'सेट क्वस्' का 'उष्' आदेश 'क्वसुष् मतौ च' २/१/१०५ से ही हो जायेगा ऐसी आशा से ही अन्य सूत्र नहीं किया है। यह न्याय व्यभिचारी अर्थात् अनित्य है। अतः 'वेः स्कन्दोऽक्तयोः' २/३/५१ से षत्व विधि में 'स्कन्द' धातु का ग्रहण करने पर भी 'अट्' सहित 'स्कन्द' धातु में षत्व विधि नहीं होती है और 'व्यस्कन्दत्' प्रयोग होता है। इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन 'उपसर्गात्सुम्सुवसोस्तुस्तुभोऽट्यप्यद्वित्वे' २/३/३९ सूत्र में उक्त 'अट्यपि' शब्द से होता है । वह इस प्रकार है : ___ 'अभ्यषुणोद्' इत्यादि प्रयोग में 'अट्' व्यवधान हो तो भी षत्व होता है। उसका ज्ञापन करने के लिए सूत्र में 'अट्यपि' रखा है। यदि यह न्याय स्थिर होता तो 'सुग्' के ग्रहण से ही 'अट्' सहित भी ग्रहण सिद्ध था. तो 'अट' का व्यवधान नहीं होता. अतः 'अट्यपि' कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि 'अट्यपि' कहा, वह यह न्याय अनित्य होने से केवल 'सुग्' कहने से 'अट्' सहित 'सुग्' का ग्रहण न होता, तो 'अट्' के व्यवधान के कारण 'अभ्यषुणोत्' में षत्व नहीं होगा, ऐसी संभावना का विचार करके सूत्र में 'अट्यपि' कहा है । ___'आगमोऽनुपघाती' न्याय भी है अर्थात् आगम उपधात नहीं करता है । उदा. भवान्, भवतु शब्द में 'ऋदुदितः' १/४/७० से 'न' आगम करने से 'अतु', 'अन्तु' स्वरूप हो जाता है तथापि 'न्' आगम अनुपघाती होने से 'अभ्वादेरत्वस: सौ' १/४/९० से 'अतु', अन्तलक्षण दीर्घ होगा ही, किन्तु इस न्याय का भी यहाँ ही अन्तर्भाव हो गया है, क्योंकि दोनों न्याय समान फलदायक हैं। 'आगम' के अनुपघातित्व का अर्थ इस प्रकार है- आगम, अपने व्यवधान के कारण जिस कार्य में विघ्न आता है, वही कार्य करते समय उपघात अर्थात् प्रकृति को नुकसान या खंडित करता नहीं है और यदि आगम को शब्द या धातु या प्रकृति का अवयव ही मान लिया जाय तो, अवयवी स्वरूप प्रकृति का ग्रहण करने से ही उसी आगम का भी ग्रहण हो जाय तो वही आगम व्यवधान बनता नहीं है । अतः उसका अनुपघातित्व सिद्ध हो जाता है। इस न्याय को पाणिनीय परम्परा में लोकसिद्ध बताया है । 'देवदत्त' के ग्रहण से उसके अधिकांश अंग का भी ग्रहण हो ही जाता है, उसी प्रकार से व्याकरण में अवयवत्व के बोधक 'आदि' और 'अन्त' शब्द से विहित आगम में अवयवत्व आ जाता है । अतः उससे विशिष्ट का भी ग्रहण होता है और उसमें ही औचित्य है, ऐसी श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यता है। ___ इस न्याय की अनित्यता का खण्डन करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि वस्तुतः 'उपसर्गात् सुग्सुवसो' २/३/३९ सूत्र में 'अट्यपि' शब्द रखने का कारण भिन्न ही है । यहाँ 'उपसर्गात्' अर्थात् उपसर्ग से अव्यवहित पर में धातु होना चाहिए, ऐसा नहीं किन्तु धातु सम्बन्धित सकार होना चाहिए, अर्थात् अव्यवहित परत्व धातु का नहीं किन्तु 'स'कार का लेना है । अत: अट् आगम करने से 'स'कार अव्यवहित पर में नहीं आयेगा, तो 'स' का 'ष' नहीं हो सकता है, वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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