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________________ १७४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ग्रहण होने पर भी रेफ के बाद तुरत में/अनन्तर 'त' नहीं है किन्तु बीच में एकचतुर्थांश मात्रायुक्त स्वर है, अतः 'त' का 'न' नहीं होगा। यहाँ इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में 'रवर्णान्नो ण एकपदेऽनन्त्यस्यालचटतवर्गशसान्तरे' २/३/६३ में 'र' और 'ऋ' दोनों का ग्रहण किया है वही है, अर्थात् यहाँ इस न्याय के अग्रहणपक्ष का ही स्वीकार है। यद्यपि पाणिनि ने स्वयं 'रषाभ्यां नो णः समानपदे' [पा. सू.८/४/१] सूत्र की रचना करके सिद्ध किया है कि उनको इस न्याय का ग्रहणपक्ष ही सम्मत है, अत एव जहाँ इस न्याय से या अन्य प्रकार से 'न' के 'णत्व' की प्राप्ति होने पर भी ‘णत्व' इष्ट न हो ऐसे शब्दों का एक स्वतंत्र 'क्षुभ्नादि' गण बताया है । तथापि महाभाष्यकार को अग्रहण पक्ष ही सम्मत है, ऐसा भाष्य देखने से लगता है। ग्रहणपक्ष ऐसा कहता है-कि यहाँ ऐसी शंका न करनी चाहिए कि यदि सन्ध्यक्षर या 'आ' कार इत्यादि के अवयव का पृथग्ग्रहण किया जायेगा तो 'अग्ने, इन्द्र, वायो उदकम्' इत्यादि में समानदीर्घ होने की तथा 'आलूय, प्रलूय' इत्यादि में हूस्वनिमित्तक 'त' का 'इस्वस्य तः पित्कृति'....४/ ४/११३ आगम होने की तथा 'वाचा तरति' इत्यादि में 'आ' में द्विस्वर मानकर तन्निमित्तक 'इकण्' होने की आपत्ति आयेगी । अतः उसका प्रतिषेध/निषेध करना होगा क्योंकि 'तैलं न विक्रेतव्यम्, घृतं न विक्रेतव्यम्' कहने से सरसव और गाय से पृथग् हुए तैल और घी के विक्रय का निषेध होता है किन्तु तैल सहित के सरसव और गाय इत्यादि के विक्रय का निषेध नहीं होता है, वैसे यहाँ भी समुदाय के अवयव का पार्थक्य ग्रहण करने पर भी, संपूर्ण समुदाय से, उसके अवयव सम्बन्धित विधि नहीं होगी । अतः किसी भी प्रकार का दोष पैदा नहीं होगा । इस प्रकार ग्रहणपक्ष निर्दोष है और शायद यदि सन्ध्यक्षर ऐकार में, अकार और एकार तथा औकार में अकार और ओकार स्पष्टतया प्रतीत होने से उससे सम्बन्धित कार्य होगा, ऐसी किसीको शंका हो तो, वह भी उचित नहीं है क्योंकि ऐ और औ में प्रतीयमान अवयव का स्वतंत्र सन्ध्यक्षर से भिन्न प्रयत्न होने से दोनों स्वतंत्र हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है, अतः उसमें समान स्वर आश्रित विधि नहीं होगी । 'आ'-कार इत्यादि में उसके अवयव स्पष्ट प्रतीत नहीं होते हैं, अतः उसके अवयव का स्वतंत्र/भिन्न ग्रहण नहीं होगा और सन्ध्यक्षर में ऊपर बताया उसी प्रकार के प्रयत्नभेद होने से उसमें भी अवयव का, समुदाय (एकवर्ण) से स्वतंत्र ग्रहण नहीं होगा । जबकि ऋकार में रेफ स्वतंत्र प्रतीत होता है, अतः उसका स्वतंत्र ग्रहण होगा। यह ग्रहणपक्ष की मान्यतावाले का तर्क है । इसके खिलाफ अग्रहणपक्षवाले कहते हैं कि वस्तुतः सन्ध्यक्षर, नृसिंह की तरह भिन्न ही है। जैसे नृसिंह में नृत्व का या सिंहत्व का व्यवहार नहीं होता है किन्तु न जाति और सिंह जाति से एक स्वतंत्र प्रकार की जाति का ही व्यवहार होता है, वैसे ही सन्ध्यक्षर में अकार इत्यादि अवयव प्रत्यभिज्ञा से स्वतंत्र प्रतीत होते हैं तथापि वस्तुतः वे पृथक् नहीं हैं। यह पक्ष कहता है कि सन्ध्यक्षर, अक्षरों का समुदाय है, ऐसी जो प्रसिद्धि है, व केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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