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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६४)
१७१ ग्रहण करना चाहिए और उसमें ही औचित्य है । उदा. इट् आश्रित विधि को वर्णविधि कही नहीं है क्योंकि वह विशिष्टवर्णसमुदाय है । अतः यहाँ ‘णि' के ग्रहण को भी वर्णग्रहण के बजाय विशिष्टवर्णसमुदाय का ग्रहण है ऐसा कहना । ।
अन्यथा 'अग्रहीत्' प्रयोग में 'अग्रह इ स ईत्' में 'इट ईति' ४/३/७१ से 'सिच्' का लोप होगा । इस प्रयोग की साधनिका इस प्रकार है । ग्रह धातु से 'अद्यतनी' ३/३/११ प्रथम पुरुष एकवचन का (अन्यदर्थे ) 'दि' प्रत्यय होगा, बाद में 'दि' के पूर्व में 'सिजद्यतन्याम्' ३/४/५३ से सिच् होगा, और 'सः सिजस्तेर्दिस्योः' ४/३/६५ से 'सिच्' के पर में आये हुए 'दि' के आदि में 'ईत्' होगा और 'स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट्' ४/४/३२ से 'सिच्' के आदि में 'इट्' होगा । बाद में 'गृहोऽपरोक्षायां दीर्घः' ४/४/३८ से 'इट्' दीर्घ होगा । यहाँ 'इट् ईति' ४/३/७१ से 'सिच्' का लोप करना हो तो, दीर्घ किये गये 'इट्' का स्थानिवद्भाव करना पडेगा, किन्तु यदि 'इट्' आश्रित सिच्लोप को वर्णविधि मानेंगे तो 'इट्' का स्थानिवद्भाव नहीं होगा किन्तु यहाँ 'इट्' को वर्ण न मानकर, विशिष्श्वर्णसमदाय ही माना है। अतः इट आश्रित सिचलोप वर्णविधि नहीं कही जा का स्थानिवद्भाव होकर, निःसंकोच 'इट ईति' ४/३/७१ से सिच्लोप होगा ।
इस प्रकार ‘णि' भी केवल इकार स्वरूप नहीं किन्तु ण् और इ का विशिष्ट वर्णसमुदाय ही है।
सामान्यतया वैयाकरणों में वाजप्यायन इत्यादि जातिपक्ष में माननेवाले हैं। उनका कहना है कि शब्द से जाति का ही बोध होता है किन्तु व्यक्ति का बोध नहीं होता है क्योंकि व्यक्तियाँ अनन्त . होती हैं, किन्तु उन सब में रहनेवाली जाति एक ही होती है। जबकि शब्द में व्यक्ति मानने से, अनन्त व्यक्ति के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है और किसी भी प्रमाण से केवल इतनी ही व्यक्ति का ग्रहण करना ऐसा निर्णय/निश्चय नहीं हो सकता है । अतः इस शब्द से यह व्यक्ति वाच्य है, ऐसा वाच्यवाचक सम्बन्ध ग्रहण हो नहीं सकता है।
और जाति द्रव्यवाचक शब्द में और द्रव्य में तो होती ही है, किन्तु साथ साथ गुण, संज्ञा, और क्रियावाचक शब्द में भी जाति होती है और व्यक्ति, जातिरहित नहीं हो सकती है, अतः जाति के ग्रहण से व्यक्ति का ग्रहण हो ही जाता है।
जबकि व्यक्तिवादी, व्याडि, पाणिनि इत्यादि कहते हैं कि शब्द से व्यक्ति ही वाच्य है क्योंकि वह अनुभव सिद्ध है और अनुपपत्ति के प्रतिसंधान के बिना भी उसकी प्रतीति हो सकती है तथा क्रिया आदि का व्यक्ति के साथ ही संबंध संभव है किन्तु जाति के साथ उसका सीधा सम्बन्ध संभव नहीं है।
व्याकरणशास्त्र में कौनसे पक्ष का स्वीकार किया है ? जातिपक्ष या व्यक्तिपक्ष ? सिद्धहेम और अन्य व्याकरण परम्परा में जातिपक्ष और व्यक्तिपक्ष दोनों का स्वीकार किया गया है । जातिपक्ष का स्वीकार इस प्रकार है ।-'जात्याख्यायां नवैकोऽसङ्ख्यो बहुवत्' २/२/१२१ सूत्र में कहा है कि जाति बतानेवाले शब्द का विकल्प से बहुवचन होता है, यदि वह संख्या या विशेषण रहित अर्थात्
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