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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.६४) १६७ उदा. 'रंरम्यते' इत्यादि प्रयोग में जैसे 'रम्' धातु के 'र' में स्थित अकार के बाद, धातु के अन्त में अनुनासिक आने से 'मुरतोऽनुनासिकस्य' ४/१/५१ से 'मु' का आगम होगा, वैसे 'हम्म' धातु से 'यङ्' होने पर, 'जंहम्म्यते' प्रयोग में भी, 'मुरतोऽनुनासिकस्य' ४/१/५१ में अनुनासिक की जाति ग्रहण करने पर, 'हम्म्' धातु के अकार के बाद, दोनों मकार अन्त में आये होने पर भी 'मुरतोऽनुनासिकस्य' ४/१/५१ से ही 'मु' का आगम होगा। __'जंहम्म्यते' इत्यादि प्रयोग की सिद्धि के लिए अन्य किसी विशेष प्रयत्न का विधान नहीं किया गया है, वह इस न्याय का ज्ञापक है। ___ यह न्याय अनित्य है, अतः क्वचित्/कदाचित् वर्णग्रहण से जाति का ग्रहण नहीं होता है। उदा. 'सु' सहित का 'घिणुङ्' धातु उदित् होने से 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' ४/४/९८ से 'न' का आगम होगा और वही 'न' का 'तवर्गस्य श्चवर्ग'-१/३/६० से 'ण' होगा, अतः 'सुघिण्ण' होगा । उससे 'मन्वन्क्वनिविच क्वचित्' ५/१/१४७ से 'वन्' प्रत्यय होगा तब 'वन्याङ्पञ्चमस्य' ४/२/६५ से पञ्चमजाति में अन्त्य दोनों 'पण' का ग्रहण करने पर दोनों के स्थान में 'आङ्' आदेश होगा और 'आङ्' 'ङित्' होने से अन्त्य 'इ' का गुण नहीं होने से 'सुधि आ वन् = सुघ्यावन्' शब्द होगा, उसका प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'सुघ्यावा' रूप होगा। और जब प्रस्तुत न्याय का उपयोग/प्रयोग नहीं होगा, तब 'पञ्चम' शब्द से अन्त्य एक ही 'ण' का ग्रहण होगा और 'वन्याङ् पञ्चमस्य' ४/२/६५ से अन्त्य 'ण' का 'आङ्' होने पर, 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः' न्याय से आगम स्वरूप 'ण' का 'न्' होगा और परिणामतः 'सुधिन् आ वन् = सुधिनावन्' शब्द होगा, उसका प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'सुधिनावा' रुप भी होगा। इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'काष्ठतङ्क्षि कुलानि' इत्यादि प्रयोग में 'न्' का आगम करने के लिए 'धुटां प्राक्' १/४/६६ में, 'धुटां' में किया गया बहुवचन का प्रयोग है । यहाँ, दो या अधिक 'धुट्' के समुदायरूप'धुट्' की जाति का ग्रहण करने के लिए, बहुवचन का प्रयोग किया है। यदि यह न्याय नित्य होता तो, इस प्रकार 'धुटां प्राक्' १/४/६६ के स्थान पर 'धुटः प्राक्' स्वरूप सूत्र रचना की संभावना थी । तथापि धुडन्त जाति स्वरूप-अनेक 'धुट्' का ग्रहण करने के लिए, 'धुट्' शब्द को बहुवचन में रखा, वह, इस न्याय की अनित्यता को सूचित करता है। __ यहाँ 'वर्णग्रहणे' कहा, वह केवल उपलक्षण ही है, अतः क्वचित् विशिष्ट वर्णसमुदाय के ग्रहण में भी जाति का ग्रहण होता है। उदा. 'चोरयन्तं प्रायुक्त अचूचुरत्' । यहाँ ‘णि' जाति का आश्रय लिया गया है । 'चुरण' धातु में, 'चुरादिभ्यः' ३/४/१७ से णिच् होगा । बाद में 'लघोरुपान्त्यस्य ४/३/४ से गुण होने पर 'चोरि' होगा, अतः 'चोरयन्तं प्रायुक्त' विग्रह करने पर 'चोरि' धातु से 'णिग्' होगा और 'अद्यतनी' का 'दि' प्रत्यय होने के बाद 'णिश्रि'....३/४/५८ से 'ङ' होगा अर्थात् यहाँ 'अचोर् + णिच् + णिग् + ङ+ दि' है । यहाँ दो 'णि' है । उसमें से प्रथम 'णि' धातु से अव्यवहित पर में है किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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