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________________ १६४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) अब त्याद्यन्तपदत्व के बारे में शंका करते हैं कि 'पाचयाम्' में अव्यय संज्ञा करके, प्रत्यय लाकर, उसका लोप करके पदत्व लाना उससे अच्छा यह है कि 'क्वसु' के स्थान पर हुए 'आम्' में परोक्षावद्भाव द्वारा पदत्व लाया जा सकता है और णव् इत्यादि परोक्षा के स्थान पर हुए 'आम्' में परोक्षत्व स्थानिवद्भाव द्वारा आ सकता है । इस प्रकार वह त्यादि विभक्त्यन्त पद होता है, तो ये अव्यय संज्ञा आदि व्यर्थ ही हैं । उसका प्रत्युत्तर देते हुए ( वे दोनों) कहते हैं कि ऊपर बताया उसी प्रकार से त्याद्यन्तनिमित्तक पद संज्ञा होनेवाली ही नहीं है क्योंकि क्वसु के स्थान पर हुए 'आम्' में परोक्षावद्भाव आता नहीं है। यद्यपि क्वसु में परोक्षावद्भाव है तथापि उसके आदेश 'आम्' में परोक्षावद्भाव नहीं है । इस 'आम्' में परोक्षावद्भावाभाव का ज्ञापन 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ सूत्र से होता है । इसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यता और श्रीहेमहंसगणि की मान्यता, प्रायः समान ही है। केवल श्रीहेमहंसगणि द्वारा की गई 'कित्' और 'अवित्' के बारे में गौरव- लाघव कि चर्चा को वे अस्थानापन्न मानते हैं । जबकि मेरी अपनी मान्यतानुसार यदि 'क्वसु' के स्थान पर हुए 'आम्' का परोक्षावद्भाव होता तो 'वेत्तेरवित् 'भी कहने की आवश्यकता नहीं है । इसकी स्पष्टता करने से पहले, श्रीहेमहंसगणि और श्रीलावण्यसूरिजी द्वारा की गई चर्चा का तात्पर्य/सार यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। 'तत्र क्वसुकानौ तद्वत्' ५/२/२ सूत्र में क्वसु' का परोक्षावद्भाव, द्वित्व इत्यादि की सिद्धि के लिए किया गया है । अतः स्यादि की अनुत्पत्ति स्वरूप अनिष्ट सिद्ध करने के लिए वह समर्थ नहीं बनता है। 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ सूत्र से 'आम्' के परोक्षावद्भाव की निवृति इस प्रकार ज्ञापित होती है । 'विदाञ्चकार' इत्यादि रूप में 'विद्' के 'इ' का गुण न हो इसलिए परीक्षा स्थानिक 'आम्' को कित् बनाया गया है। यदि 'आम्' को 'वेत्तेरवित्' सूत्र बनाकर अवित्' किया होता तो परोक्षास्थानि 'आम्' में 'इन्ध्यसंयोगात् परोक्षा किद्वत्' ४/३/२१ से कित्व आ जाता और गुण का अभाव सिद्ध हो जाता । तथापि 'वेत्तेरवित्' सूत्र न बनाकर, 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ सूत्र किया, उससे ज्ञापित होता है कि 'आम्' का परोक्षावद्भाव नहीं होता है, अतः परोक्षावद्भावनिमित्तक कित्त्व, द्वित्व इत्यादि कार्य नहीं होते हैं । उदा. 'जुहवाञ्चक्रतुः' इत्यादि में आम् का परोक्षावद्भाव नहीं होने से कित्त्व नहीं होगा और 'हु' के 'उ' का गुण होगा और द्वित्व करने के लिए 'भीहीभृहोस्तिव्वत्' ३/४/५० से 'तिव्वत्' किया है । बाद में 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होगा, अतः यहाँ 'विदाञ्चकार' में परोक्षानिमित्तक 'द्विर्धातुः परोक्षा'- ४/१/१ से द्वित्व नहीं होगा और कित् करने से गुणाभाव होगा। किसी भी विधान को ज्ञापक बनाना हो तो उसे व्यर्थ बताना चाहिए । यहाँ 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ ऊपर बताया उसी प्रकार व्यर्थ है किन्तु उसकी सार्थकता अन्य प्रकार से बताई जा सकती है और उसे श्रीहेमहंसगणि ने गौरव लाघव की चर्चा करके, सार्थक बताया है । उसकी सार्थकता इस प्रकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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