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________________ १६० न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) यह न्याय प्रायः अन्य किसी भी परम्परा में इसी स्वरूप में प्राप्त नहीं है । ॥ ६२॥ निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन ॥ ५॥ सूत्र में यदि निरनुबन्ध का ग्रहण हो तो सामान्यतया सर्व का ग्रहण करना । 'सामान्य' का अर्थ यहाँ 'निरनुबन्ध 'और 'सानुबन्ध 'इस प्रकार दोनों का ग्रहण करना । (सूत्र में यदि कोई शब्द, धातु या प्रत्यय निरनुबन्ध ग्रहण किया हो तो, उसे सामान्य कथन मानकर, निरनुबन्ध और सानुबन्ध दोनों का ग्रहण करना) निरनुबन्ध से सानुबन्ध में बहुत कुछ स्वरूपभेद/ शब्दभेद/विसदृशता होने के कारण सानुबन्ध का ग्रहण संभव नहीं था, उसे संभव बनाने के लिए यह न्याय है। उदा. 'स्वः' और 'कः' यहाँ 'र: पदान्ते विसर्गस्तयोः' १/३/५३ सूत्र में निरनुबन्ध रेफ का ग्रहण है, अतः जैसे 'स्वः' में 'स्वर्' शब्द के स्वाभाविक रेफ का विसर्ग हुआ वैसे 'कः' में 'कस्' के 'स्' का ‘सो रु:' २/१/७२ से हुए 'रु' सम्बन्धित 'र' का भी विसर्ग होगा। इस न्याय का ज्ञापक/आरोपक ‘अरोः सुपि र:' १/३/५७ में 'रु' का वर्जन किया, वह है । यहाँ 'र: पदान्ते-' १/३/५३ सूत्र में जिस रेफ के विसर्ग का विधान है वह निरनुबन्ध और सानुबन्ध दोनों प्रकार के रेफ का विसर्ग करता है और उसके ही अधिकार में आये हुए 'अरोः सुपि र:' १/३/५७ में 'रु' का वर्जन न किया जाय तो 'गीर्षु ,धीर्षु' की तरह ‘पयस्सु, चन्द्रमस्सु' इत्यादि प्रयोग में भी 'रु' सम्बन्धित 'र' का विसर्ग होतो किन्तु वह अनिष्ट है, अत: 'रु' सम्बन्धित र का वर्जन करने के लिए 'अरो:' पद रखा है और 'अरो:' पद से ज्ञात होता है कि 'र: पदान्ते' - १/ ३/५३ में जो 'र' है उससे इस न्याय के कारण दोनों प्रकार के (सानुबन्ध और निरनुबन्ध) रेफ का विसर्ग होता है। यह न्याय अनित्य है, क्योंकि दूसरा एक न्याय है कि 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' । यह न्याय प्रस्तुत 'निरनुबन्धग्रहणे सामान्येन' न्याय का बाधक है । ( ये दोनों न्याय-परस्पर एकदूसरे के बाधक बनते हैं यह एक विचारणीय विषय है।) वस्तुतः 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' न्याय प्रथम/पहले ज्ञापकसिद्ध के स्वरूप में बता देने के बाद, उसके प्रतिपक्ष स्वरूप यह न्याय न कहना चाहिए क्योंकि एक ही विषय में परस्पर विरुद्ध न्याय का अस्तित्व होना उचित नहीं है। अब प्रश्न यहीं पैदा होता है कि दोनों न्याय ज्ञापक सिद्ध ही हैं तो दो में से किस को यहाँ उचित मानना चाहिए ? उसका कोई निश्चायक नहीं है, अतः दोनों न्याय के अस्तित्व का स्वीकार करना चाहिए, ऐसी कोई शंका करें तो उसका प्रत्युत्तर श्रीलावण्यसूरिजी इस प्रकार देते हैं । पहले जिस न्याय की स्थापना की गई हो उसी न्याय से विरुद्ध अर्थवाले न्याय से पूर्व के न्याय की अनित्यता का ही ज्ञापन हो सकता है और वही उचित है । अत एव 'अरोः सुपि र:' १/३/५७ सूत्र के न्याससारसमुद्धार में बताया है कि लाक्षणिक न्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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